अभय नेमा, भोपाल। रंगमंच, टीवी, फिल्म और वेब सिरीज की ख्यात कलाकार मीता वशिष्ठ इन दिनों भोपाल में फिल्म छोरी की शूटिंग के लिए आई हैं। इस मौके पर उनसे उनकी अभिनय यात्रा पर बातचीत की गई। प्रस्तुत है बातचीत के प्रमुख अंश
रंगमंच से टीवी की दुनिया, फिर फिल्म और अब वेब सीरीज 'योर ऑनर' में अपने अभिनय का लोहा मनवा रही हैं। रंगमंच और वेब सीरीज माध्यम के तौर पर कितना अलग है?
मैंने हमेशा से ही सभी माध्यमों में एक साथ काम किया। रंगमंच, दूरदर्शन के सीरियल कुमार शाहनी के साथ फिल्म सिद्धेश्वरी, श्याम बेनेगल के साथ डिस्कवरी ऑफ इंडिया, फिल्म चांदनी, इरफान के साथ मशहूर निर्देशक प्रसन्ना के साथ प्ले किया। तो अभिनय हमेशा से ही अलग-अलग माध्यमों में करती रही हूं। जहां तक वेब सीरीज की बात है तो वेब सीरीज डेली सोप की वजह से जो बासीपन बना है उसे खत्म करती है। टीवी सोप में एक ही कैरेक्टर, महीनों, सालों तक चलता था लेकिन वेब सीरीज एक तरह से इंटरनेशनल टेलीविजन है। इसमें शुरुआत होती है मध्यांतर होता है और अंत होता है। वेब सिरीज में आपका अभिनय बड़े स्केल पर देखा जाने लगा है। दर्शक बहुत बढ़ गए हैं। आप का काम आप तुरंत देखा जा रहा है और बार-बार देखा जा रहा है। इस तरह आपका काम लोगों के सामने जल्दी आ रहा है। दूरदर्शन पर भी अच्छे सीरियल आते रहे लेकिन वह रिपीट नहीं होते थे। 13 या 26 सीरियल के बाद खत्म हो जाते थे बतौर अभिनेता समय के साथ आप अपने काम की गहराई में उतरने लगते हैं। आपको जो अभिनय करने के लिए जो मिलता है उसमें गहराई से उतरना चाहिए। यही मैं करती हूं चाहे वह कोई भी माध्यम हो।
आप का नाटक 'Lal Ded' बहुत मशहूर रहा है। उसके बारे में बताइए।
- फरवरी 2004 में मैंने 'Lal Ded' का पहला शो किया था। इस नाटक को 16 साल पूरे हो चुके हैं। यह अब भी पूरी ऊर्जा के साथ खेला जाता है। 'Lal Ded'कश्मीर की रहस्यवादी कवियत्री हैं। जिनकी कविता जिसे वाख कहते हैं, कश्मीर के जन-जन में रची बसी है। लल देद एक शैव तांत्रिक थीं जिनकी कविताएं, उक्तियों और कोट के रूप में आम कश्मीरी की बातचीत में बोली-सुनी जाती है। चाहे वह हिंदू हो या मुस्लिम। इस नाटक को अलग-अलग लोगों के साथ किया गया। लेखन, रिसर्च, गायन में कई लोगों ने साथ दिया। बंसी कौल ने निर्देशन में सहयोग किया । अंजना पुरी का सहयोग रहा। अक्षरा नामक एनजीओ का सपोर्ट मिला। विष्णु माथुर ने इस नाटक का स्ट्रक्चर तैयार किया। हिंदी में ट्रांसलेशन राजेश झा ने किया। हसीब द्राबू से नाटक के लिए कश्मीरी सीखी। यह नाटक हिंदी, अंग्रेजी और कश्मीरी भाषा में है। क्लिष्ट किस्म की हिंदी है इसमें। फिर कश्मीरी भाषा में वाख(कविता) है फिर अंग्रेजी में बात आगे बढ़ाई जाती है। 'Lal Ded' कश्मीर का आइकन है जिसमें कश्मीर की सभ्यता समाई हुई है। आम कश्मीरी उन्हें आज भी उसी रूप और श्रद्धा के साथ मानता है जितना 700 साल पहले तेरहवीं सदी में मानता था। उनकी कविताओं में 'Lal Ded' का जिक्र लल्ला और लल्लेश्वरी के नाम से होता है। 'Lal Ded'खुद को मुक्त करतीं हैं। वह किसी इज्म यानी वाद या विचारधारा से बंधी नहीं हैं। वह अपने समय से परे हैं। वे किसी दायरे में नहीं हैं। उन्होंने दायरों की बेड़ियों को तोड़ा है। जैसे आपका व्यक्तित्व आप के पैदा होने से पहले होता है वे उसी शून्य की खोज करती हैं। वे नहीं चाहतीं कि लोग उनके अनुयायी बनें।
-आपके अभिनय की बुनियाद रंगमंच पर खड़ी हुई है। नाटक और एक्ट्रेस बनने के प्रति आपका रुझान कैसे हुआ।
उत्तरः चंडीगढ़ में कॉलेज की पढ़ाई हुई। वहां से मैंने इंग्लिश लिटरेचर में एमए किया। उस वक्त हम लोगों के लिए यह जरूरी था कि हर स्टूडेंट किसी न किसी रचनात्मक गतिविधि से जरूर जुड़ा रहे। चाहे वह म्यूजिक हो, पोएट्री हो, ड्रामा हो या पेंटिंग हो। कॉलेज में मुझे किसी तरह से हर ड्रामा में पहुंचा दिया जाता था। जब कहीं थिएटर या प्ले होता मेरा नाम पहुंचा दिया जाता। उस वक्त तेजी ग्रोवर से संपर्क हुआ। वे रंगमंच का ग्रुप बनाना चाहती थीं। वे टेनेसी विलियम की कहानी द ग्लास मिनेजरी पर हिंदी नाटक कांचघर कर तैयार कर रही थीं। उसमें लौरा का कैरेक्टर वह मुझसे करवाना चाहती थीं।
वह कहती थीं कि लौरा का कैरेक्टर आप करो, वह किरदार आपकी आंखों में है। मैं काफी एक्सट्रोवर्ट किस्म की लड़की थी। वॉटरस्पोर्ट्स खेला करती थी सेलिंग करती थी जबकि लौरा का कैरेक्टर इसके बिल्कुल विपरीत था। वह एक अंतर्मुखी लड़की थी। बड़ा ही नाजुक किस्म का चरित्र था। इसकी रिहर्सल शुरू हो गई लेकिन अचानक मेरी तबीयत खराब होने की वजह मुझे अस्पताल में एडमिट होना पड़ा। पेट में इंफेक्शऩ हो गया था शायद वाटरस्पोर्ट्स के दौरान पानी पेट में चला गया था। मैं करीब तीन हफ्ते तक चंडीगढ़ के अस्पताल में भर्ती रही। खाना भी बंद हो गया था। शो के दो दिन पहले कुछ ठीक हुई तो मुझसे कहा गया कि शो करोगी। मैं स्टेज पर आई और लड़खड़ा कर खड़ी हुई । उस वक्त मैंने टेक्निकल रिहर्सल की । उसके बाद अगले दिन शो भी किया ।
तकरीबन 700 लोगों ने उस शो को देखा था। अतुलजीत अरोड़ा के निर्देशन में नाटक शुरू होते ही मेरी कमजोरी गायब हो गई मुझे अपनी लाइनें याद रहीं और बिल्कुल ठीक तरह से मैंने अपने डायलॉग कहे। वहीं मेरे साथ काम करने वाले जो एक्टर जिन्हें मेरे साथ काम करने का अनुभव नहीं था वह लड़खड़ा गए। तभी मुझे लगा कि अभिनय ही मेरी जगह है। उसी वक्त मेरे भीतर अभिनय का अंकुर फूटा और ऐसा लगा कि वह अंकुर उठकर दर्शकों से जुड़ गए। यह मेरी चेतना का विस्तार था । शरीर कमजोर था लेकिन चेतना बहुत विराट हो गई थी और वह उस नाटक को देख रहे हर शख्स से जुड़ गई थी। यह एक किस्म का आदान-प्रदान था खुद में केंद्रित होते हुए एकाग्र रहते हुए दर्शकों के साथ जुड़ने का अनुभव अध्यात्मिक था।
1981- 82 के उस दौर में जब नाटक की कोई ज्यादा पूछ परख नहीं होती थी यह मेरे लिए बहुत बड़ा अनुभव था। नाटक के बाद जब मैं डिपार्टमेंट में पहुंची तो वहां मोहन महर्षि (मशहूर डायरेक्टर व रंगकर्मी) को थिएटर के लिए कलाकार चाहिए था, तब मुझे लगा कि थिएटर की दुनिया बहुत बड़ी है और मैं एक नईदुनिया में प्रवेश कर रही हूं। चंडीगढ़ में मैं सेक्टर 27 में रहती थी । रिहर्सल की जगह तक पहुंचने में पैदल एक घंटा लगता था। लौरा का जो किरदार था, उसके एक पैर में खामी थी तो वह उचक-उचक कर चलती थी। यह उचककर चलने की प्रैक्टिस में लगातार करती रही । मैं यह चाहती थी कि उसका उचक उचक कर चलना मुझमें, मेरी आदत में शामिल हो जाए। तो मैं रास्ते पर उचक उचक कर चलती थी। एक दिन मेरे एक दोस्त मोपेड से आ रहे थे तो मुझे देख कर रुक गए।
उन्होंने पूछा कि पैर में क्या हो गया है मैंने बताया कि रिहर्सल के लिए कर रही हूं । तब बिना ड्रामा स्कूल जाए मैंने यह सीख लिया था कि किसी किरदार को अपने में कैसे शामिल करना है। फर्स्ट ईयर में मैंने कॉलेज में एक नाटक किया था तो हमारी इकोनामिक्स की टीचर ने भी यह नाटक देखा। मैं पार्किंग में मोपेड खड़ी कर रही थी तभी मुझे इकोनामिक्स की टीचर ने बुलाया। मुझे लगा जरूर वे मुझे इकोनामिक्स में कम मार्क्स आने पर कुछ कहेंगी। उन्होंने बड़ी विनम्र मुस्कान के साथ मुझसे कहा मीता तुममें एक्ट्रेस का टैलेंट है। आगे चलकर बड़ी एक्ट्रेस बन जाओ। मैं शर्मा गई। उस वक्त मैं तकरीबन 16 साल की थी। मुझे उस वक्त बड़ी खुशी हुई । तब मुझे लगा कि मैं एक्ट्रेस बन सकती हूं।
प्रोफ़ेसर मोहन महर्षि इंग्लिश डिपार्टमेंट में थे। उनके साथ एक नाटक किया जिसका नाम था बिच्छू। उसमें मैने एक लड़के का रोल किया था। तब मुझे पता चला कि थिएटर बहुत गूढ़ है। इसमें बहुत सीखना पड़ता है, फिर मेरा लश्य एनएसडी बना। मैने एनएसडी के लिए पूरी तैयारी की। मैं काफी वेस्टनाइज थी। पिता फौज में थे, जहां उनकी पोस्टिंग होती हम भी वहीं जाते थे। फौज में होने के कारण अंग्रेजी और हिंदी ही बोली जाती थी। मेरी अंग्रेजी अच्छी थी। मां अक्सर अच्छी हिंदी सीखने के लिए कहती थीं।
एनएसडी में प्रवेश के लिए बड़ी कठिन परीक्षा होती थी। पहले स्पीच तैयार करके भेजनी होती थी। फिर रिज्यूम पूछते थे। रिटन टेस्ट होने के बाद वे मटेरियल भेजते थे जिस पर इंटरव्यू के लिए अभिनय की तैयारी करनी होती थी। मुझे क्लासिकल संगीत नहीं आता था तो मैने चंडीगढ़ में क्लास जाकर सीखा। यमन कल्याण सीखा एक भजन सीख लिया। आषाण का एक दिन नाटक की किरदार मल्लिका की स्पीच तैयार की। मैने बड़ी मेहनत से तैयारी की।
उस किरदार में संवाद के समय मल्ल्किा की एक आंख से आंसू निकलता है, तो मैं भी एक आंख में आंसू लाई। मैने अपना गेटअप भी सादा रखा। सादा सा सलवार सूट। बाल भी छोटे शहरों के परिवेश वाले रखे। मैं टाप 10 में सिलेक्ट हुई और मुझे स्कालरशिप भी मिली। इंटरव्यू लेने वालों में अभिनय के अलावा अनल-अलग विषयों के जानकार और महारथी थे। एनएसडी में इंडियन थियेटर पढ़ा। नाट्यशासतर पूरा पढ़ा। मैं पूरी तरह से थियेटर की दुनिया में रम गई।
Posted By: Sandeep Chourey
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