
दंतेवाड़ा। Fagun Mela in Dantewada साल में दो बार मनाए जाने वाले शारदीय नवरात्रि और चैत्र नवरात्रि को आम लोग देवी-आराधना का पर्व मानते हैं। लेकिन छत्तीसगढ़ के दंतेवाड़ा जिले में मां दंतेश्वरी का आखेट नवरात्रि के नाम से चर्चित फागुन मेला विश्व प्रसिद्ध है। करीब 12 दिनों तक चलने वाले इस फागुन मेले में मां दुर्गा के नौ रूपों की पूजा के साथ नौ दिनों तक माता की पालकी निकाली जाती है। फागुन मेला में निभाई जाने वाली रस्में केवल दंतेवाड़ा में ही देखने को मिलती है। इस मेले में 700 से ज्यादा गांव के देवी-देवता शामिल होते हैं। दंतेवाड़ा में फागुन मेला का आगाज बसंत पंचमी से हो चुका है। इस साल 26 फरवरी से नौ मार्च तक फागुन मेला मनाया जाएगा।
26 से ही होगी अद्भुत रस्मों की शुरुआत
यहां के पुजारियों का कहना है कि दंतेवाड़ा में शंकनी-डंकनी नदियों के संगम स्थल पर विराजित मां दंतेश्वरी देवी का प्रसिद्ध ऐतिहासिक और पुरातात्विक प्राचीन शक्तिपीठ है। इसी आदिशक्ति की छत्रछाया में फागुन मेला का आयोजन होता है। मेले के साथ ही यहां का जनजीवन मड़ई में बंधकर संगम पर जमा होता है। इस दिन मंदिर परिसर में त्रिशूल स्तंभ गाड़कर और माईजी के छत पर आम बौर चढ़ाकर पूजा की जाती है। फागुन मास के अंतिम 12 दिनों में आयोजित होने वाले इस मेले में आदिवासी समाज के पारंपरिक देव भक्ति, आदिवासी संस्कृति, लोक नृत्य का यह उत्सव अपने चरम पर होता है, मेंडका-डोबरा मैदान में मां दंतेश्वरी की कलश स्थापना के साथ इस उत्सव का शुभारंभ होता है। इसमें बस्तर संभाग और ओड़िशा के नवरंगपुर जिले के सभी देवी-देवताओं को आमंत्रित कर सहभागी बनाया जाता है।
खास रस्में
विश्व प्रसिद्ध फागुन मेले में पहले दिन मड़ई स्थल पर कलश स्थापना की जाती है। इसके बाद दूसरे दिन ताड़ फलंगा, धुवानी विधान संपन्ना किया जाता है। इसका मतलब ताड़वृक्ष के पत्तों को धोना होता है। ताड़ के इन पत्तों को माता तरई में धोकर होलिका दहन के लिए सुरक्षित रखा जाता है। इस बीच माईजी की पालकी हर दिन शाम मंदिर से नारायण मंदिर के लिए निकाली जाती है, फिर दोबारा मंदिर वापस आती है। मेले के तीसरे दिन खोर कुंदनी और चौथे दिन नाच मांडनी पर मांदर, नगाड़े की थाप पर मंदिर के सेवादार, पुजारी और अन्य लोग मां दंतेश्वरी के सम्मुख नृत्य करते हैं।
क्या है मान्यता
मेले में आखेट नाच के अलावा आंवरामार का भी आयोजन किया जाता है। इस दिन माई की पालकी पर आंवले का फल चढ़ाया जाता है। मंडई देखने आए जनसमूह और पुजारी, सेवादार बारह लंकवार आदि दो समूहों में अलग होकर एक दूसरे पर इसी आंवले से प्रहार करते हैं। ऐसी मान्यता है कि आवरामार रस्म के दौरान प्रसाद स्वरूप चढ़े फल की मार यदि किसी के शरीर पर पड़ती है तो सालभर वो निरोगी रहता है।
क्या होता है मेले के आखिरी दिन
इस फागुन मेले के अंतिम चरण में चौथे दिन रंग भंग उत्सव मना कर सभी आमंत्रित देवी देवताओं का पादुका पूजन किया जाता है। गंवरमार के दूसरे दिन मंडई का उत्सव होता है। इसमें पुजारी द्वारा दोनों हाथों में माईजी के छत्र को थामे हुए कुर्सी से बने पालकी में बैठाया जाता है। साथ ही सारे शहर का भ्रमण कराया जाता है। इसके अलावा चीतलमार नृत्य भी फागुन मेले में काफी चर्चित है। इसे देखने के लिए दूर-दूर से पर्यटक आते हैं। इसके अलावा डंडार नृत्य और विभिन्ना भेष लेकर किए जाने वाले नृत्य भी होते हैं और स्थानीय कलाकृतियां और फूड आइटम्स की दुकानें भी आकर्षण का केंद्र होती है। मेले के 10 वें दिन देवी की सति की याद में होलिका दहन होता है, और फिर होली के दूसरे दिन लोग एक दूसरे पर मिट्टी फेंककर होली मनाते हैं और इस त्यौहार का समापन होता है।
ये है इस वर्ष फागुन मेले का कार्यक्रम
26 फरवरी प्रथम पालकी कलश स्थापना।
27 फरवरी द्वितीय पालकी ताड़ प्लंगा धोनी।
28 फरवरी तृतीय पालकी खोर खुदनी।
एक मार्च चतुर्थ पालकी नाच मांडनीं।
दो मार्च पंचम पालकी लम्हामार।
तीन मार्च षष्ठम पालकी कोडरीमार।
चार मार्च सप्तम पालकी चितलमार।
पांच मार्च अष्टम पालकी गवरमार।
छह मार्च नवम पालकी अवरामार होलिका दहन।
सात मार्च पूर्णिमा रंग भंग पादुका पूजन।
आठ मार्च प्रतिपादा को मंडई।
नौ मार्च को आमंत्रित देवी-देवताओं की विदाई।