Gwalior Court News: ग्वालियर. नईदुनिया प्रतिनिधि। बात वर्ष 2010 की है। मुझे सिविल न्यायालय के एक निर्णय के विरुद्ध अपील प्रस्तुत करने का मौका मिला। इस अपील में महत्वपूर्ण और रोचक प्रश्न था कि अधीनस्थ न्यायालय ने हिंदू उत्तराधिकारी अधिनियम की धारा छह के संशोधन 2005 में लड़कियों को लड़कों के बराबर समान उत्तराधिकारी मानकर पुश्तैनी संपत्ति में उनके बराबर का हित प्रदान करने के लिए विधिक प्रविधान संशोधित किया गया।
इस क्रम में मेरे पक्षकार जयेंद्र अवाड़ के विरुद्ध प्रस्तुत वाद निर्णित करते हुए बहन को बराबरी के एक चौथाई हिस्सा पुश्तैनी संपत्ति में अधीनस्थ न्यायालय द्वारा दिलाया गया था। इस मामले में विधिक प्रश्न मेरे मन में आया कि जब पूर्व में वादी बहन के पिता की मृत्यु वर्ष 2005 से पहले हो गई है और परिवार में उनकी मृत्यु के पश्चात उत्तराधिकार उनके बचे हुए वंशजों में खुल गया है, ऐसे में उक्त कानून को भूतलक्षी प्रभाव से प्रदान नहीं किया जा सकता है। यह एक विधिक त्रुटि है। प्रथम अपील में भी अधीनस्थ न्यायालय के निर्णय को स्थिर रखा गया, लेकिन मेरे मन में दृढ़निश्चय था कि मेरे विधिक ज्ञान के अनुसार यह विधिक प्रश्न सुप्रीम कोर्ट से निर्णित किया जाएगा। इसके लिए मेरे पक्षकार ने मेरी सलाह पर सुप्रीम कोर्ट में एक स्पेशल लीव पिटीशन दायर की, जिसका फैसला वर्ष 2016 में आया। इसे सुप्रीम कोर्ट की महत्वपूर्ण किताब सुप्रीम कोर्ट केसेस के 2016 वाल्यूम 2 एससीसी पेज 34 पर प्रकाशित किया गया। सुप्रीम कोर्ट द्वारा विधिक प्रश्न का उत्तर देते हुए यह निर्धारित किया गया कि 2005 के संशोधित प्रविधान का लाभ लेने के लिए पुत्री के साथ पिता का जिंदा रहना अनिवार्य है, अन्यथा 2005 के पूर्व की तिथि में पिता की मृत्यु होने पर उत्तराधिकार खुल जाता है। उसको पुन: बंद न किया जाकर 2005 के प्रविधानों के अनुसार भूतलक्षी प्रभाव से लागू नहीं किया जा सकता है। यह केस मेरे जीवनभर यादगार के रूप में दर्ज है।
Posted By: anil tomar