Apan Indori: अजीत कुमार मूथा, इंदौर। इतिहास के पन्नों में तलाशने के लिए बहुत ज्यादा पीछे जाने की आवश्यकता नहीं है। अभी हाल का इंदौर अपनी यौवन अवस्था से गुजरता हुआ परिपक्वता की मिसाल बनता जा रहा है। यह शहर भले ही आज छह मर्तबा स्वच्छ शहर होने का राष्ट्रीय गौरव प्राप्त कर चुका हो, मगर इसकी आत्मा इसके जन्म से ही स्वच्छ, पवित्र और पावन रही है।
इस शहर का बाशिंदा अपनी जिंदगी को जिंदादिली से जीता है और पल-पल आत्मीयता के भाव से लबरेज भी रहता है। कभी मिनी मुंबई, तो कभी मुंबई का बच्चा कहलाने में गौरव महसूस करने वाले भारत के दिल मध्य प्रदेश की औद्योगिक एवं व्यावसायिक राजधानी कहलाता है मेरा इंदौर शहर। यहां तेजी से दौड़ती-भागती किसी भी तरह से दौलत कमाने की अंधी दौड़ में शामिल लोगों की भीड़ नहीं है, इस इंदौर शहर में वास्तव में यहां का निवासी आत्मीयता, स्नेह, ममत्व, वात्सल्य, समन्वयवादी दृष्टिकोण और सबको साथ लेकर चलने की भावना रखता है।
यहां की तंग गलियां जिस आत्मीयता का बोध निवासियों को करवाती थी, सड़क चौड़ीकरण के साथ वह सभ्यता भी विस्तार लेती गई। बचपन में अपने दादाजी की अंगुली पकड़कर पहली बार इंदौर आया था। 1989 के मध्य या अंत में इस शहर में आकर जो अपना ठौर बनाया, तबसे आज तक वह सफर बदस्तूर जारी है। इस शहर की आत्मीयता और आपसी सहयोग, भाईचारे और मदद करने की भावना का उल्लेख न करूं तो संभवतः यह लेख अधूरा ही रह जाएगा।
1988 के अंत की बात है। मेरी उम्र 15 वर्ष पूर्ण हुई थी, उसी दौरान अपने वाहन मिनी मेटाडोर के स्टीयरिंग का एक पुर्जा लेने इंदौर आया था। सरवटे बस स्टैंड पर उतरकर पलासिया पहुंचने तक का किराया 50 पैसे चुकाया था, यह आज तक याद है। सीधे पलासिया स्थित वर्कशाप पहुंचा। वहां काउंटर पर साथ लाया पुर्जा दिखाकर नया पुर्जा मांगा। उन्होंने पुर्जा बुलाया और बिल मेरे हाथ में थमा दिया। बिल देखकर मैं अवाक रह गया, जितना पैसा घर से लेकर निकला था और अब जितना जेब में है, उतनी ही राशि का बिल बन चुका था। खरीदना अत्यंत आवश्यक हो चुका था, बिल बन चुका था और वह लेकर में वर्कशाप के ठीक बाहर एक स्थान पर बैठ सोचने लगा कि अब आगे क्या होगा, क्योंकि जेब में फूटी कौड़ी नहीं थी। फोन की सुविधा भी नहीं थी, इंदौर के नजदीकी रिश्तेदारों का पता मालूम न था। ऐसे में आंखें नम होने लगी या सच कहूं तो सुबकने लगा था।
यह देख मैकेनिक, सुपरवाइजर मेरे पास आए, कंधे पर हाथ रखा, समस्या पूछी और समाधान सोचने लगे। इसी बीच लंच टाइम में अपने साथ उन्होंने खाना भी खिलाया। उन्होंने अपने साथी लोगों से चर्चा कर मेरे वापस लौटने की पूरी व्यवस्था करवाई और साथ ही कर्मचारी से बोल मुझे सरवटे बस स्टैंड तक अपने स्कूटर से छुड़वाया। बात आई-गई हो गई, लेकिन आज इंदौर शहर में लगभग 35 वर्ष गुजारने के बाद भी पलासिया स्थित उस वर्कशाप के सामने से गुजरते वक्त इंदौर शहर की आत्मीयता, अपनत्व, भाईचारा और सहयोग की भावना के समक्ष मेरा और मेरे बच्चों का सिर श्रद्धा से झुक जाता है। (लेखक कहानीकार और नईदुनिया के सम्माननीय पाठक हैं।)
Posted By: Hemraj Yadav