World Olympic Day: इंदौर, नईदुनिया प्रतिनिधि। मध्य प्रदेश की आर्थिक राजधानी कहलाने वाले इंदौर में खेलों की सुविधाएं तेजी से बढ़ी हैं, लेकिन उस अनुपात में यहां से अंतरराष्ट्रीय खिलाड़ी नहीं निकल रहे हैं। शहर के खेल संगठन गुरुवार को विश्व ओलिंपिक दिवस मनाएंगे, लेकिन हकीकत यह है कि इंदौर से 26 साल से कोई खिलाड़ी ओलिंपिक में नहीं पहुंचा है।
इंदौर में टेबल टेनिस, बास्केटबाल, टेनिस के अंतरराष्ट्रीय स्टेडियम हैं। यहां अंतरराष्ट्रीय स्पर्धाएं भी नियमित होती हैं, लेकिन ढांचागत सुविधाओं का असर खेल पर नजर नहीं आ रहा है। इंदौर से अंतरराष्ट्रीय स्तर के खिलाड़ी निकल रहे हैं, लेकिन ओलिंपिक जैसे शीर्ष स्तर तक नहीं पहुंच पा रहे। इंदौर से आखिरी बार वर्ष 1996 के अटलांटा ओलिंपिक में पप्पू यादव पहलवान पहुंचे थे। उनके बाद से इंदौर से ओलिंपियन निकलने का इंतजार जारी है। बहुत से खेल संगठनों में राजनीति हावी है और दो गुट सक्रिय हैं। इंदौर में खेल विभाग का कोई सेंटर नहीं है। यहां से पद्मश्री शंकर लक्ष्मण और किशन लाल जैसे ओलिंपियन निकले, लेकिन हाकी का एस्ट्रोटर्फ भी नहीं है। प्रदेश के सबसे पुराने प्रकाश क्लब के बच्चे फुटपाथ पर खेलने को मजबूर हैं।
शहर में हो चुकी हैं कई प्रमुख स्पर्धाएं
शहर में डेविस कप टेनिस टूर्नामेंट हो चुका है, जिसमें कई सितारा खिलाड़ी खेलने आए थे। यहां टेबल टेनिस की अलगअलग वर्गों की राष्ट्रीय स्पर्धाएं लगातार होती रहती हैं। इनमें कई ओलिंपिक खिलाड़ी भी खेले हैं। बैडमिंटन और बास्केटबाल की राष्ट्रीय स्पर्धाएं भी इंदौर में हुई हैं।
स्तरीय प्रशिक्षकों का अभाव: सोनी
मप्र ओलिंपिक संगठन के उपाध्यक्ष ओम सोनी के अनुसार शहर में ढांचागत सुविधाएं हैं, लेकिन उस अनुपात में शहर से खिलाड़ी नहीं निकल रहे हैं। इंदौर में बास्केटबाल, टेनिस, टेबल टेनिस के अंतरराष्ट्रीय स्तर के स्टेडियम हैं। इतनी सुविधाएं प्रदेश में अन्य स्थानों पर नहीं हैं। मगर फिर भी ऐसे खिलाड़ी नहीं निकल रहे हैं जो ओलिंपिक तक पहुंच सकें। इसका कारण यह है कि यहां स्तरीय प्रशिक्षकों का अभाव है। सरकार प्रमुख केंद्रों पर योग्य प्रशिक्षकों की नियुक्ति करे तो खिलाड़ी को फायदा मिलेगा।
खेल संस्कृति विकसित करने की जरूरत : लोदी
भारतीय जूनियर डेविस कप टेनिस टीम के कोच साजिद लोदी के अनुसार हमारे पास पिछले पांच से 10 साल में सुविधाएं बेहतर हुई हैं। बेहतर सुविधाओं का परिणाम कुछ सालों बाद देखने को मिलेगा। सिर्फ ढांचागत सुविधाओं से काम नहीं चलेगा। हमें शहर में खेल संस्कृति विकसित करने की जरूरत है। इंदौर में बाहर से आकर बच्चे सीखते हैं। बाहर से जो बच्चे आते हैं, उनका ध्यान केवल खेल पर ज्यादा होता है। इसका उन्हें फायदा मिलता है। मगर अब धीरेधीरे माहौल सुधरता जा रहा है।
खेलों के प्रति सोच बदलना होगी : सिलावट
हाकी इंदौर संगठन के कार्यकारी अध्यक्ष देवकीनंदन सिलावट ने बताया कि खेलों के प्रति शासन और प्रशासन को सोच बदलना होगी। यदि खिलाड़ियों से ओलिंपिक की उम्मीद की जाती है तो उन्हें उस स्तर की सुविधाएं भी देना होंगी। शहर में खिलाड़ियों के पास उचित मैदान नहीं हैं और हम ओलिंपिक के सपने कैसे देख सकते हैं। सबसे पहले मूलभूत सुविधाओं को जुटाना होगा। इंदौर के बच्चे फुटपाथ पर हाकी खेलकर प्रदेश और राष्ट्रीय स्तर पर टीमों में चुने जा रहे हैं। यदि इन्हें बेहतर सुविधाएं मिले तो ओलिंपिक में भी नाम रोशन कर सकते हैं।
पप्पू का ओलिंपिक चयन राष्ट्रीय राजनीति का था बड़ा मुद्दा
इंदौर के पप्पू यादव ग्रीकोरोमन कुश्ती स्पर्धा में वर्ष 1992 के बार्सिलोना और 1996 के अटलांटा ओलिंपिक में खेले थे। वर्ष 1996 में पप्पू को वाइल्ड कार्ड से ओलिंपिक में प्रवेश मिला था। भारत सरकार ने ट्रेनिंग के लिए चार पहलवानों के साथ बेलारूस भेजा था। मगर तभी भारतीय कुश्ती महासंघ ने कहा कि पप्पू और महाराष्ट्र के काका पंवार के बीच ट्रायल होगा। इसके लिए पप्पू को वापस बुलाया गया। ट्रायल की तारीख को पप्पू भारत नहीं पहुंच सके, तो महासंघ ने पप्पू का नाम काटकर काका पंवार का नाम तय कर दिया। तब मप्र के मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह थे, जो पप्पू के लिए प्रयास कर रहे थे। तब राष्ट्रीय राजनीति में शरद पंवार और सुरेश कलमाड़ी का दबदबा था। ये काका पंवार के पक्ष में थे।
इसके बाद मप्र के पहलवान लालू प्रसाद यादव के पास पहुंचे। यादव समाज का मामला देख लालू अड़ गए और तत्कालीन प्रधानमंत्री इंद्रकुमार गुजराल से पटना में ट्रायल कराने की मांग की। कुश्ती महासंघ ने दिल्ली कराने की बात कही। तब दिल्ली का पूरा मीडिया इंदिरा गांधी स्टेडियम पहुंच गया था। मगर उस दिन हंगामे के कारण ट्रायल नहीं हुआ। फिर 10 दिन बाद जब ट्रायल हुआ तो देश के तमाम दिग्गज नेता वहां मौजूद थे। भारी पुलिस लगी थी। यहां पप्पू ने इकतरफा अंदाज में 112 अंकों से काका पंवार को हराया था।
Posted By: Sameer Deshpande
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