यशवंतसिंह पंवार, झाबुआ।
मंगलवार को विश्व आदिवासी दिवस धूमधाम से जिले में मनाया जाएगा । इस दौरान आदिवासियों के विकास व अधिकार की बातें मुख्य रूप से होंगी। हालांकि, बीते सालों में झाबुआ की तस्वीर ही बदल गई है। अब प.डोसी जिले धार पर उसके निर्भरता की कहानी केवल इतिहास के पन्नो बन चुकी है। एक समय इसे कालापानी के रूप में प्रचारित किया गया, लेकिन इस स्वरूप से काफी आगे अब यह निकल चुका है।
इस जिले ने दो-दो पद्मश्री, केंद्रीय मंत्री, दलों के प्रदेश प्रमुख राजनीति में और शिक्षा व कला में राष्ट्रीय ही नहीं, बल्कि अंतरराष्ट्रीय स्तर के विद्यार्थी दिए हैं। अधोसंरचना विकास के मामले में तो सारे रिकार्ड ही टूट चुके है। गांव-गांव में सड़क-बिजली व हर घर मे नल कनेक्शन तेजी से पहुंच रहा है। कच्चे मकानों का स्थान तीव्र गति से बड़े-बड़े भवन ले रहे है। पहले गेहूं बाहर से आता था, मगर अब शहरों की मंडियों में यहां से जा रहा है। कपास की गुणवत्ता के कारण दक्षिण भारत के व्यापारी यही से माल लेना पसंद करते हैं।
यह होगा आज
शहर में जश्न मनाते हुए जगह-जगह रैली निकलेगी। आदिवासी हितों को लेकर विचार व्यक्त किए जाएंगे। चाहे कोई भी हो, सभी परपंरागत परिधानों में दिखाई पड़ेंगे। ढोल-मांदल की थाप पर हर कोई थिरकेगा । कुल मिलाकर नौ अगस्त को जिले में उत्सव के रूप में मनाया जाएगा।
इसलिए मनाते हेैं विश्व आदिवासी दिवस
संयुक्त राष्ट्र (यूएन) ने आदिवासियों के हितों के लिए एक कार्यदल गठित किया था, जिसकी विशेष बैठक नौ अगस्त 1982 को हुई थी। दुनियाभर में रहने वाले आदिवासी समुदाय के लोगों की संस्कृति, भाषा और अस्तित्व को बचाने के लिए नौ अगस्त को 1994 में हर साल विश्व आदिवासी दिवस के रूप में मनाने की घोषणा कर दी गई । झाबुआ जिले में इस विशेष दिन को लेकर पिछले एक दशक में ही जागरूकता पैदा हुई है और हर साल विभिन्ना आयोजन किए जाने लगे हैं।
बीते दिनों की बात हुई
- राजनीतिक रूप से जिला पहले इतना कमजोर था कि यहां के जनप्रतिनिधियों को बड़े नेताओं से मिलने के लिए धार जिले के नेताओं के माध्यम से समय लेना पड़ता था ।
- जिला बनने के बावजूद सभी सरकारी कार्यालय धार में संचालित होते थे। 1999 में अंतिम बचा परिवहन व नगर निवेश कार्यालय भी यहां आ गया।
- अंगुलियों पर वाहन गिने जा सकते थे।
-ग्रामीण क्षेत्रों में पहुंचना ही कठिन था और वर्षाकाल में तो कई रास्ते ही बंद हो जाते थे ।
शिक्षा को अपनाया,जीवन बदला
प्रख्यात समाजवादी मामा बालेश्वर दयाल ने आजादी के बाद नारा दिया था, बांधो रोटा न चालो कोटा । इसका अर्थ यह था कि रोटी बांधो और मजदूरी करने के लिए निकल पड़ो। इस नारे का दूरगामी परिणाम यह है कि आज हजारों किमी दूर जाकर यहां का श्रमिक अपने पसीने की बूंदों से अच्छा आर्थिक उपार्जन कर रहा है। इससे जिले का परिदृश्य बदला है। इसके साथ ही शिक्षा को हथियार बनाने वाले कई परिवारों की हैसियत ही बदल गई है। इस जिले के बच्चे बड़े-बड़े पदों पर पहुंच चुके हैं।
यह सुविधा मिली
- 1479 व्यक्तिगत वन अधिकार पट्टे
-4350 सामुदायिक पट्टे
- 70 लाख पीएससी पास करने पर
-1.50 लाख यूपीएससी में
-160 छात्रावास
- 1400 रुपये प्रति माह हर बच्चे पर
- 2700 स्कूल-कालेज खुल गए
एक नजर में
- 11 लाख 91 हजार आबादी
- 06 विकासखंड
-42 साक्षरता दर
- 90 प्रतिशत आदिवासी आबादी
यात्रा जारी है
- हर बच्चे को निश्शुल्क हर सामग्री मिल रही
- 2 हजार बच्चों के लिए आवास योजना
- बैकलॉग भर्तियों का सिलसिला सतत जारी
- मकान सहित अन्य बुनियादी जरूरतें मिल रही
- आवागमन व रोजगार के साधन में बढोत्तरी
- सिंचाई साधन व जल स्रोत बढ़ रहे
आज यह संकल्प लें
- दहेज-दापे जैसी सामाजिक बुराई कर्ज में धकेल रही है । कर्ज के कहर से सभी को बचाएं।
- नशे के खिलाफ बड़ी जंग हो, इससे ही विकास बाधित हो रहा ।
- किसी भी स्तर पर गड़बड़ी अब सहन नहीं की जाए।
- शिक्षा का अलख गांव-गांव में जगे। जो इससे दूर है,वे अब जुड़े।
तेजी से बदला वातावरण
- सेवानिवृत्त शिक्षक बालमुकंद सिंह चौहान का मानना है कि विगत दो दशक में जिला तेजी से बदला है। बाहर की दुनिया से जुड़ जाने के बाद सोच ही बदल चुकी है। अब शुरुआती दौर जैसी हालत बिल्कुल भी नहीं रही।
- वरिष्ठ नागरिक बीएस सोलंकी का कहना है कि जिले को पहले कालापानी इसलिए कहा गया क्योंकि सुविधाओं की कमी थी । अब तो हर सुविधा मिलने लगी है। बुनियादी ढांचा भी मजबूत हुआ है । केवल कुछ बातों पर ध्यान दे दिया जाएं तो विकास की गति और अधिक बढ़ सकती है।
Posted By: Nai Dunia News Network