Taste Of Jabalpur : सुरेंद्र दुबे, नई दुनिया। संस्कारधानी के उपनगरीय क्षेत्र सदर अंतर्गत पुरानी महावीर टाकीज के परिसर में स्थित है-मार्डन काफी हाउस। इसका शुभारंभ छह दशक पूर्व 1958 में एसआर राजन उर्फ अन्ना ने किया था। इसीलिए शुरू से बोलचाल की भाषा में अन्ना का डोसा शब्द प्रचलित हो गया। दरअसल, जिन दिनों इंडियन काफी वर्कर्स कोआपरेटिव सोसायटी लिमिटेड, जबलपुर अस्तित्व में आ रही थी, उन्हीं दिनों जबलपुर के कैंटोनमेंट एरिया में अन्ना ने अपना साउथ इंडियन रेस्त्रां शुरू कर डोसा व इडली परोसने का प्रकल्प प्रारंभ कर दिया था। इससे पूर्व स्थानीय निवासियों ने दक्षिण भारतीय व्यंजनों का स्वाद दक्षिण भारतीय परिवारों में ही चखा था। किंतु अन्ना ने यह सुविधा सार्वजनिक कर दी थी। इस तरह इसने एक परंपरा का रूप ले लिया। जबलपुर के लाखों लोग फुटबाल, हाकी, बिलियर्ड, स्नूकर में जीतने या किसी भी तरह शर्त जीतने पर अन्ना का डोसा खाने की शर्त रखते आ रहे हैं।
1958 से प्रतिष्ठान का संचालन
46 वर्ष से इस प्रतिष्ठान का संचालन एसआर राजन उर्फ अन्ना के बड़े पुत्र राजकुमार सिंह उर्फ राजू कर रहे हैं। उन्हें अपने पिता की विरासत को गति देने में गर्व की अनुभूति होती है। वे प्रसन्नता व्यक्त करते हुए बताते हैं कि 1958 में पिता जी ने शुरुआत की थी। जो भी व्यक्ति या परिवार एक बार अन्ना का डोसा चख लेता है, वह बार-बार आता रहता है। यहां इडली-डोसा के साथ सांभर-चटनी बनाने की परंपरागत विधि अपनाई जाती है। यहां एक बार में 35 से 50 लोग बैठ सकते हैं। रविवार और मंगलवार को दूसरे दिनों की अपेक्षा अधिक भीड़ रहती है।
यहां की बात कुछ निराली और अलग
साहित्यकार पंकज स्वामी के अनुसार अन्ना का डोसा अपने अनोखे स्वाद, गुणवत्ता व दूसरों की तुलना में अपेक्षाकृत कम मूल्य में अधिक सामग्री परोसने के कारण अत्यधिक लोकप्रिय हो गया। ग्राहकों की त्वरित सेवा, गुणवत्ता और खाद्य सामग्री का दूसरे रेस्त्रां या काफी हाउस की तुलना में ज्यादा परोसना ऐसी बातें हैं, जिनसे कोई भी प्रभावित हुए बिना नहीं रहता है। डोसा तो आजकल कई जगह मिलता है लेकिन यहां की बात कुछ निराली और अलग है। किसी भी संस्थान की पहचान और लोकप्रियता में व्यवहार कुशलता की अहम भूमिका होती है। इस दृष्टि से अन्ना का डोसा खाने आने वाले परोसने वालों के व्यवहार की तारीफ किए बिना नहीं रहते। अन्ना का डोसा काफी हाउस शुरु से किशोर उम्र के लड़के-लड़कियों के बीच बेहद लोकप्रिय रहा है। एक समय यह जबलपुर के स्टूडेंट लीडरों का अड्डा था। इसका वजह से इस रेस्त्रां का अपना एक अनुशासन भी है। यह स्थान जीवन में किसी प्रकार की जीत और खासतौर से शर्त जीतने पर अन्ना का डोसा खाने के लिए भी पहचाना जाता है।
मेन कुक या हेड शेफ रैफल 57 वर्ष से जुड़े
यहां के मेन कुक या हेड शेफ रैफल हैं। वे 1966 से जुड़े हैं। आठ-नौ वर्ष की आयु में वे इडली-डोसा परोसने का कार्य करते थे। इसी दाैरान अन्ना से इडली-डोसा आदि बनाने का हुनर सीख लिया। जायके के शौकीन रैफल के बनाए डोसे, इडली, सांभर चने की दाल की चटनी को चटखारे ले कर खाते हैं। इस रेस्त्रां की दूसरी खासियत इसका पिछले 65 सालों से एक सा स्वाद है। रेस्त्रां में किसी भी चीज में कोई खास मसाला नहीं डाला जाता और जैसी मान्यता है उसी के अनुसार बनाया जाता है। लेकिन दूसरे रेस्त्रां या काफी हाउस के मुकाबले वे डोसा या इडली बनाते समय चावल व उड़द दाल का एक अलग मिश्रण व अनुपात रखते हैं। इस वजह से उनका डोसा व इडली नरम रहते हैं और खाने में लजीज लगते हैं। रेस्त्रां में दो छोटे हाल व दो छोटे कमरे हैं। यहां की क्राकरी साधारण है। अन्ना के डोसे में महंगाई से खाद्य सामग्री का मूल्य तय होता है। जब रेस्त्रां शुरू हुआ था तब एक मसाला डोसा 15 पैसे में और वर्ष 1966 में 25 पैसे में आता था। अब इसकी कीमत 70 रुपये हो गई है।
Posted By: Dheeraj Bajpaih
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