
डिजिटल डेस्क। दुनिया के कई देशों में महिलाएं अब भी “मॉरल पुलिसिंग” के डर के साए में जी रही हैं। ईरान में 1979 की इस्लामिक क्रांति के बाद से महिलाओं पर हिजाब पहनने का दबाव बढ़ा और इसका पालन कराने के लिए विशेष पुलिस बल बनाए गए। इसी मॉरल पुलिस की हिरासत में युवती महसा अमीनी की मौत ने हाल ही में ईरान को फिर अशांत कर दिया था। अब वहां लोग सड़कों पर उतरकर मॉरल पुलिसिंग के खिलाफ आवाज उठा रहे हैं।
मॉरल पुलिसिंग का मतलब होता है सरकारी या धार्मिक एजेंसियों द्वारा लोगों को “सामाजिक और धार्मिक आचार संहिता” का पालन करवाना। जिन देशों की शासन व्यवस्था शरिया या धर्म आधारित कानून पर चलती है, वहां इसका प्रभाव और भी ज्यादा दिखाई देता है।
किन-किन देशों में मॉरल पुलिस?
ईरान
यहां मॉरल पुलिस को गश्त-ए-इरशाद और बाइस स्क्वॉड कहा जाता है। 1979 की क्रांति के बाद लागू इस्लामी दंड संहिता में महिलाओं का बिना हिजाब बाहर निकलना अपराध माना गया।
सऊदी अरब
1940 में कमेटी फॉर द प्रमोशन ऑफ वर्चू एंड द प्रिवेंशन ऑफ वाइस बनी। यहां के मॉरल पुलिसकर्मी ‘मुतावा’ कहलाते हैं और यह पारंपरिक ड्रेस पहनकर शरिया नियम लागू कराते हैं।
अफगानिस्तान
तालिबान शासन में मॉरल पुलिसिंग और सख्त हो गई है। 1990 के दशक में बने अफगानिस्तान कमेटी फॉर द प्रोपेगेशन ऑफ वर्च्यू एंड प्रिवेंशन ऑफ वाइस को फिर तालिबान ने सक्रिय कर दिया। महिलाओं पर हिजाब और पढ़ाई-नौकरी पर प्रतिबंध जैसी पाबंदियां यहां आम हैं।
मलेशिया
यहां हिजाब कानूनन अनिवार्य नहीं है, लेकिन इसे सामाजिक दबाव की तरह लागू किया जाता है। इस्लामिक रिलीजियस डिपार्टमेंट न केवल हिजाब बल्कि रोज़ा न रखने, शराब पीने और नमाज़ से गैर-हाजिरी जैसे मामलों पर कार्रवाई करता है। दोषियों को विशेष शरिया अदालत में पेश किया जाता है।
नाइजीरिया
नाइजीरिया में हिस्बा नामक मॉरल पुलिस है। इनमें अधिकतर लोग अशिक्षित और बिना ट्रेनिंग वाले होते हैं। आरोप है कि ये शरिया कानून के नाम पर लोगों की निजी जिंदगी में बेवजह दखल देते हैं।
सूडान
1993 में यहां पब्लिक ऑर्डर पुलिस बनी। यह शरिया तोड़ने वालों को गिरफ्तार कर पब्लिक ऑर्डर कोर्ट में पेश करती है। यहां सजा के तौर पर कोड़े मारने और जेल भेजने तक का प्रावधान है।
ईरान, अफगानिस्तान, सऊदी अरब, मलेशिया, नाइजीरिया और सूडान जैसे 17 से ज्यादा देशों में महिलाएं आज भी मॉरल पुलिसिंग के खौफ के साथ जी रही हैं। उदारवादी तबके इसे दमनकारी बताते हैं, जबकि कट्टरपंथी इसे धर्म और संस्कृति बचाने का जरिया मानते हैं।