बुटाटी धाम, राजस्थान से नवोदित सक्तावत।
देश में एक ऐसा भी मंदिर है जहां दर्शनार्थी तो खूब उमड़ते हैं लेकिन यह मंदिर जिनके नाम पर बना है, उनकी प्रतिमा ही मंदिर में स्थापित नहीं है। इसके पीछे की वजह कोई विवाद या दोष नहीं, बल्कि केवल अनुपलब्धता है। यह प्रसिद्ध मंदिर है बुटाटी धाम जो कि राजस्थान के नागौर जिले के कुचेरा कस्बे में स्थित है। यह मंदिर संत चतुरदास जी महाराज के समाधि स्थल पर बना है। मंदिर में सुबह और शाम के समय उमड़ने वाली भक्तों की भारी भीड़ और भव्य मंदिर परिसर को देखकर यह अंदाज लगाना मुश्किल है कि यहां आस्था का जो मूल केंद्र है, उसकी प्रतिमा नहीं है। यहां केवल संत चतुरदास जी के सांकेतिक पैरों के निशान हैं। राजस्थान में पैरों के निशान को पगलिया कहा जाता है। उसी को आराध्य मानकर श्रद्धालु आरती एवं कामना करते हैं। राजस्थान में रामस्नेही और दादूदयाल पंथ के अनुयायियों की संख्या अच्छी खासी है। इस पंथ में मूर्ति पूजा की मान्यता है।
यह है इसका कारण
बुटाटी धाम मंदिर समिति के अध्यक्ष शिवसिंह राठौड़ का कहना है कि जिन चतुरदास जी महाराज के नाम पर यह मंदिर बना है, वे आज से करीब 600 साल पहले हुए थे। इस कारण उनकी कोई भी झलक तक उपलब्ध नहीं है। ऐसा नहीं है कि हमने प्रतिमा स्थापना के प्रयास नहीं किए लेकिन वह काल्पनिक ही होती। लोगों के आग्रह के बावजूद यहां संत की प्रतिमा आकार नहीं ले सकी।
क्या है बुटाटी धाम मंदिर
बुटाटी धाम मंदिर राजस्थान के नागौर जिले की डेगाना तहसील के कुचेरा कस्बे में है। यह एक प्राचीन मंदिर है। यहां सामान्य मंदिरों की तुलना में अलग दृश्य देखने को मिलता है। असल में, यह मंदिर पैरालिसिस यानी लकवे के मरीजों के लिए है। मान्यता है कि यहां सात दिन व सात रातों तक नियमित रूप से आरती एवं परिक्रमा करने एवं तत्पश्चात भभूत ग्रहण करने से लकवे के मरीजों की परेशानी दूर हो जाती है। जनआस्था के चलते प्रतिदिन यहां देश भर से मरीजों का तांता लगा रहता है।
उज्जैन की राजा भर्तृहरि गुफा में भी है निशान
हिंदू धर्म में मूर्तिपूजा और उपासना की एक विरल परंपरा रही है। धर्मप्राण पुरोहितों व श्रद्धालुओं के लिए मूर्ति पूजा का अपना महत्व होता है लेकिन कहीं कहीं अपवाद भी सामने आते हैं। मध्यप्रदेश के उज्जैन में राजा भर्तृहरि की गुफा प्रमुख धार्मिक पर्यटन में से एक है। यह भी एक समाधि स्थल है। बताया जाता है कि गुफा के भीतर राजा भर्तृहरि की हथेली का निशान आज भी है। हालांकि यह एक मान्यता है, एवं इसकी आधिकारिक पुष्टि नहीं है लेकिन आसपास के क्षेत्रों में इस गुफा की पहचान उस हाथ के निशान से ही है।
Posted By: Arvind Dubey
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