भगवान परशुराम का जन्म 5142 वि.पू. वैशाख शुक्ल तृतीया के दिन-रात्रि के प्रथम प्रहर में भृगु ऋषि के कुल में हुआ था।
कन्नौज नामक नगर में गाधि नाम के एक राजा राज्य करते थे। उनकी एक पुत्री थी जिसका नाम त्यवती था। राजा गाधि ने अपनी पुत्री सत्यवती का विवाह भृगु ऋषि के पुत्र भृगुनन्दन ऋषीक से किया।
जब उन्होंने बाल्यकाल में ही भगवान शिव की महा तपस्या की तो भगवान शिव ने उन्हें महाशक्तिशाली परशु (फरसा) प्रदान किया इसी लिए उनका नाम राम से परशुराम हो गया।
एक बार परशुराम जी की मां रेणुका का चित्त चंचल हो उठा। जब वे आश्रम पहुंची तो महर्षि जगदग्नि ने रेणुका के मन की बात जान ली और क्रोधित होकर परशुराम मां का सिर काटने की आज्ञा दी।
राजा सहस्त्रबाहु ने ऋषि जमदग्नि से कामधेनु गौ की मांग की। किन्तु जमदग्नि ने उन्हें कामधेनु गौ नहीं दी। इस पर सहस्त्रबाहु जमदग्नि ऋषि का वध कर दिया। इसके बाद परशुराम ने उसकी हत्या कर दी।
पिता के आश्रम के आश्रम को कुछ लोगों ने उजाड़ दिया था। इसे लेकर उनकी मां विलाप कर रही थी। इसलिए पशुरामजी ने पृथ्वी पर से क्षत्रियों के संहार करने की शपथ ले ली।
परशुराम से कर्ण नकली ब्राह्मण बन कर समस्त विधाएं सीखने गए। एक बार की बात है जब जंगल में परशुराम थक गए, तब वे कर्ण की गोद में सिर रख कर सो गए। जब उन्हें पता चला तो उन्होंने कर्ण को श्राप दिया।
एक बार परशुराम भगवान शिव से मिलने के लिए पहुंचे लेकिन द्वार पर खड़े शिवजी के पुत्र गणेशजी ने उन्हें अंदर जाने से रोक दिया। इस पर दोनों में युद्ध हुआ। जिसमें फरसे के वार से उनका दांत टूट गया।