नईदुनिया प्रतिनिधि,अंबिकापुर: उत्तर छत्तीसगढ़ में जनजातीय ग्रामीण अंचल में दिवाली के 11 दिन बाद देवउठनी एकादशी तिथि को "सोहराई तिहार" के नाम से दिवाली मनाते हैं। इस दिन गाय के कोठा से घर तक गाय के खूर (पंजे) के निशान को छापते हुए निशान बनाते हैं। इसे लक्ष्मी के आगमन का प्रतीक मानते हैं।पर्व के दिन जनजातीय समुदाय के लोग डार खेलते हैं। इसमें रात भर करमा नृत्य किया जाता है। सरगुजा में डार खेलने की एक परंपरा प्रचलित है। जैसे करमा डार, तीजा डार, दसई डार और देवउठनी सोहराई में सोहराई डार खेला जाता है।
सरगुजा अंचल की संस्कृति, मान्यताएं, और तीज त्योहार विल्कुल अनूठे हैं। सरगुजा अंचल में सोहराई के रूप में विशेष लक्षमी पूजा का पर्व माना जाता है। इस दिन लोग साफ सफाई करते हैं। और गौ माता की लक्ष्मी के रूप में उपासना करते हैं।
देवउठनी इनकी बड़ी दिवाली होती है जिसे सोहराई कहते हैं। इस दिन जनजाति समुदाय के लोग डार(पेड़ डंगाल गाड़ कर )खेलते हैं। इसमें रात भर करमा नृत्य किया जाता है और सुबह नदी में जाकर स्नान करते हैं। सरगुजा अंचल में डार खेलने की परंपरा प्रचलित है।
सरगुजा अंचल के जनजातीय लोग गौ माता को लक्ष्मी का दर्जा देते हैं। ये गौ माता को लक्ष्मी के रूप में पूजते हैं,इसलिए देवउठनी सोहराई के दिन घर की गौशाला से देहरी तक गाय के पद चिन्ह को बनाते हैं। मां लक्ष्मी को घर आगमन का न्यौता देते हैं। उसके बाद आंगन में चावल की मिठाई, लाल कंद, कंद मूल, कुम्हड़े का फल चढ़ाते हैं। इस दिन उपवास रह कर लाल कंद, कंद मूल, कुम्हड़े का फल चढ़ाकर मां लक्ष्मी की पूजा करते हैं और फलाहार करते हैं।
देवउठनी एकादशी से देवता जाग जाते हैं
ऐसी मान्यता है कि देवउठनी एकादशी से देवता जाग जाते हैं इसलिए कार्तिक माह के शुक्ल पक्ष की एकादशी तिथि को देवउठनी एकादशी का पर्व मनाया जाता है। ऐसी मान्यताएं हैं कि भगवान विष्णु आषाढ़ शुक्ल एकादशी को चार माह के लिए सो जाते हैं और कार्तिक शुक्ल एकादशी को जागते हैं। इन चार महीनों में देव शयन के कारण समस्त मांगलिक कार्य वर्जित होते हैं। इसी दिन से सारे शुभ कार्य शुभ कार्य प्रारंभ हो जाते हैं। सरगुजा अंचल के गांव में आदिवासी लोग भी इसी दिन को दिवाली के रूप में सोहराई तिहार मनाते हैं।
सोहराई के दिन मनाते हैं कोठा(गोशाला) तिहार
सरगुजा अंचल में देवउठनी एकादशी दिवाली के दिन कोठा(गोशाला) तिहार भी मनाया जाता है। इसमें ग्रामीण लोग अपने गो माता का पैर धो कर फूल माला चढ़ाकर लक्ष्मी के रूप में पूजा करते हैं। जनजातीय समाज के लोग अब धीरे-धीरे कार्तिक अमावस्या मुख्य दिवाली के दिन भी दीया जला कर गो माता को मां लक्ष्मी के रूप की पूजा करते हैं। लेकिन इनकी मुख्य दिवाली देवउठनी एकादशी को सोहराई तिहार के रूप में मनाते हैं।
इस संबंध में जनजाति संस्कृति के शोधकर्ता अजय कुमार चतुर्वेदी का कहना है कि जनजातियों में यह परंपरा पुरानी है। लोग अपने-अपने तरीक़े से दिवाली का पर्व मनाते हैं। सरगुजा अंचल में जनजाति समाज के लोग अब दिवाली के दिन भी दिवाली मनाने लगे हैं जबकि उनकी मुख्य दिवाली एकादशी देवउठनी पर ही धूमधाम से सोहराई पर्व की है।