बतौली। नईदुनिया न्यूज
बतौली के देवरी रोड निवासी एक सेवानिवृत्त प्रसिद्ध साहित्यकार की कहानी हिंदी के स्नातकोत्तर पाठ्यक्रम में शामिल किया गया है। पंडित सुंदरलाल शर्मा मुक्त विश्वविद्यालय के एमए हिंदी पाठ्यक्रम में शामिल की गई कहानी समाज में व्याप्त रूढ़ीवादिता पर चोट करती है। विद्यार्थियों को यह समझाने कहानी को छत्तीसगढ़ी साहित्य विषय में शामिल किया गया है कि समाज में व्याप्त रूढ़ीवादिता और अंधविश्वास के प्रति जागरूक होकर अपने कर्तव्यों का निर्वहन करें। बतौली के कहानीकार की रचनाएं कई पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हो चुकी है।
सेवानिवृत्त शिक्षक सुदामा राम गुप्ता वषोर् से कहानी रचते रहे हैं। सरगुजिहा बोली में लिखी गई उनकी कई कहानियां काफी संवेदनशील है। समतामूलक समाज के निर्माण के लिए रची गई कहानियां समाज में व्याप्त आडंबर, छुआछूत अंधविश्वास के विरुद्ध एक आक्रमण है। कहानीकार सुदामा राम गुप्ता बताते हैं कि पंडित सुंदरलाल शर्मा मुक्त विश्वविद्यालय के एमए हिंदी के छत्तीसगढ़ी साहित्य विषय में उनकी कहानी सम्मिलित की गई। उन्होंने कहा इस माध्यम से मैं यह कहना चाहता हूं कि सरगुजा के जागरूक युवा रूढ़िवादिता से दूर रहें और इसके खिलाफ संघर्ष पथ पर अग्रसर रहें। बतौली में कहानीकार की किताब के पाठ्यक्रम में शामिल होने की चर्चा से लोगों में हर्ष व्याप्त है। गौरतलब है कि सुदामा राम गुप्ता की कहानियां लोकाक्षर में छपती रही है। इसके अलावा विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में भी समय-समय पर रचनाएं प्रकाशित होती रही है। आकाशवाणी केंद्र अंबिकापुर से भी कहानी का प्रसारण नियमित अंतराल पर होता रहा है।
प्रेरक कहानी है जीव परी-
एमए हिंदी के पाठ्यक्रम में शामिल की गई कहानी 'जीव परी' एक छोटे बालक के इर्द-गिर्द घूमती है। गांव में अमरूद तोड़ने के दरमियान एक पत्थर उसके सिर पर लग जाता है। समय के साथ घाव बड़ा हो जाता है और उसमें कीड़े लग जाते हैं। गांव में ही किसी छठी के कार्यक्रम में जब उसका मुंडन कराने की बारी आती है तो गांव का नाई घाव में कीड़े लगने की वजह से उसके बाल काटने से मना कर देता है। गांव में यह बात फैल जाती है कि उसे छूत की बीमारी हो गई है और इस तरह कहानी आगे बढ़ती है और उसके परिवार को समाज से बहिष्कृत कर दिया जाता है। समाज में शामिल करने के लिए समाज के लोगों को भोज कराने सहित अन्य आयोजन की शर्त रखी जाती है। बालक के पिता गरीबी की हालत में एक डोली जमीन बेचकर भोज का आयोजन करते हैं और समाज में शामिल होते हैं। अंत में वे कहते हैं जिस घाव को ठीक करने के लिए वे 10 रुपये नहीं खर्च कर सकते थे। समाज में शामिल होने के लिए उन्हें अपनी जमीन बेचनी पड़ी है। समाज में व्याप्त अंधविश्वास पर कुठाराघात करती है कहानी काफी मर्मस्पर्शी है। सिर पर घाव होने और उसमें कीड़े लगने की वजह से गांव के लोग बालक को जीवपरी कहकर चिढ़ाते हैं। यही कथा का सार है।