अंबिकापुर। The Royal Dussehra: सरगुजा की राजसी परंपरा में दशहरे का खास महत्व है। आजादी से पहले सरगुजा राजपरिवार के दशहरे का वैभव इतिहास में दर्ज है। हाथी पर सवार होकर राजा निकलते थे। मैसूर की तरह हाथियों का प्रोसेशन होता था।आजाद भारत में भी सरगुजा पैलेस का दशहरा आम जनों के लिए खास होता है। संभाग भर से बड़ी संख्या में लोग दशहरा के दिन पैलेस पहुंचते हैं और परंपरा अनुसार राजा के दर्शन कर नजराना देते हैं, किंतु इस बार कोरोना संक्रमण के कारण आम जनों के लिए पैलेस का द्वार बंद रहेगा। राजपरिवार के मुखिया प्रदेश सरकार के कैबिनेट मंत्री टीएस सिंह देव परंपरा अनुसार परिवार के सदस्यों के साथ गद्दी पूजन, शस्त्र पूजन, वाद्य यंत्र पूजन व द्वार पूजन के साथ कुलदेवी पूजन की परंपरा पूरी करेंगे। पांच पीढ़ियों से दशहरे में लोग सरगुजा पैलेस आते हैं। वर्षों बाद लोगों को पैलेस में प्रवेश नहीं मिलेगा।
ऐसा था सरगुजा स्टेट का भव्य दशहरा
सरगुजा स्टेट के इतिहासकार गोविंद शर्मा बताते हैं यहां के प्रख्यात दशहरा प्रोसेशन में महाराजा रामानुज शरण सिंहदेव का हाथियों का प्रोसेशन मैसूर दशहरा से भी जबरदस्त और भव्य था। सरगुजा स्टेट के पास छोटे-बड़े सब मिलाकर 361 हाथी थे, जिनमें से 150 हाथी चांदी के हौदे कसे प्रशिक्षित थे। लगभग पचास हाथी तो आदमी के कद से डेढ़-दोगुने ऊँचे, खतरनाक बाघों से भीड़ जाने वाले किन्तु अनुशासित और बैंड के धुन में कदम मिला कर चलने वाले थे,जिनमें सरस्वती गज, महेंद्र गज जयराज गज, महिपाल, श्रीगणेश, मोहनगज, महावीर, रामगज, बाबु हाथी, सुद्धूगज, विश्वम्भर, राजमंगल, नरेन्द्र गज, सुरकानत गज, राजपालगज, राजयपाल गज, महिपाल, बख्तबर, हरिहरगज, शेर बहादुर, सिंहबहादुर, आनन्द गज, देवीप्रसाद, सुद्धू, नवांगनेश, सुन्दरगज, उदयराज, रामगज, नाकुलगज, राजबहादुर, जयराज गज, सुंदर गज, दिरपाल, नरेंद्र गज, रंजीत, लक्ष्मीप्रसाद, बड़े नानबाबू, छोटे नानबाबू, कमलेश्वर, मंगलगज, बंडा हाथी (जिसका नाम भारत प्रकाश था), कमलाप्यारी, गुलबदन,चांद प्यारी, कुसुमकेली, कामती, मानमति, बिजली, मनोरमा, मंडरम, मंडरुमा प्यारी, जमुना, मणिकंचन, जमुनागज, मणिप्रभा, चन्द्रमा, मालतीगज, गिरिजाप्यारी, बिजाप्यारी, नाननोनी, गोविन्द प्यारी, केशव प्यारी, भईरी, अनारकली, कांति, अम्बिका प्यारी (महाराज को बाघो के आक्रामक झुंड से बचानें के लिए लहूलुहान हो गई थी) आदि हाथी थे। दो सौ के बाद बाकी हाथी मरम्मत खाना, खुराकी के कारण जंगल में हांक दिए गए थे। इस काफ़िले में अरबी घोड़े और ऊँट भी हुआ करते थे।
नीलकंठ उड़ाते थे महाराजा
इतिहासकार शर्मा बताते हैं दशहरा जुलुस "रैनी" के पहले हाथी पर महाराजा बंजारी मठ (अब बिलासपुर मार्ग) पहुंच 'नीलकण्ठ' उड़ा रहे होते थे, तब तक "रघुनाथ पैलेस" के 'सिंहद्वार' से पचासों सजे-धजे हाथियों की रवानगी भी नहीं हो पाई रहती थी और इन्हें देखने दूर-दूर से लोग हप्ते भर पहले जगह लूटने सपरिवार डेरा जमा लेते थे। उस दौर की विरल आबादी में लाखों की जोश उमंग और श्रद्धा से भरी भीड़ महाराजा के चुंबकीय व्यक्तित्व को रेखांकित करती है।
अब भी दशहरे में नजर आता है वह वैभव
अब भी सरगुजा के रघुनाथ पैलेस में सरगुजा राजपरिवार के मुखिया दवा द्वारा परंपरागत शस्त्रपूजा, नगाड़ा पूजा, कुलदेवी पूजा, गद्दी पूजा और दशहरा दरबार में "सलामी" का आयोजन किया जाता है। तब की एक झलक सहज ही महसूस किया जा सकता है। हालांकि 1966 में महाराजा अंबिकेश्वर शरण सिंहदेव के निधन के बाद से अंग्रेजों,भारतीय रियासतों सहित विश्व को चमत्कृत कर देने वाला हाथियों के प्रोसेशन का वैभवशाली वैभव समाप्त हो गया।