अंबिकापुर (नईदुनिया प्रतिनिधि)। होली का पर्व हिंदी पंचांग के अनुसार फाल्गुन मास की पूर्णिमा को हर्षोल्लास पूर्वक मनाया जाता है। यह त्योहार बसंत ऋतु में मनाया जाता है, इसलिए इसे बसंतोत्सव भी कहा जाता है। होली का त्यौहार हिंदू धर्म का महत्वपूर्ण भारतीय त्योहार है। इसे फगुआ, फागुन, धूलेंडी, छारंडी (राजस्थान) और दोल के नाम से जाना जाता है। ईश्वर भक्त प्रह्लाद की याद में इस दिन होली जलाई जाती है। प्रतीकात्मक रूप से प्रह्लाद का अर्थ आनन्द माना जाता है। वैर और उत्पीड़न की प्रतीक होलिका (जलाने की लकड़ी) जलती है। और प्रेम तथा उल्लास का प्रतीक प्रह्लाद (आनंद) अक्षुण्ण रहता है। सरगुजा अंचल में इसे ''होरी'' त्योहार के नाम से जाना जाता है। इस त्योहार के पहले दिन होलिका दहन और दूसरे दिन धूलेंडी, धुरेंडी, धुरखेल और सरगुजा अंचल में ''धूर उड़ाना'' के नाम से रंग, अबीर, गुलाल एक दूसरे पर खुशी-खुशी डाला जाता है। ढोल - नगाड़े के साथ होली गीतों का गायन किया जाता है। कहीं कहीं इसे फाग गीत भी कहा जाता है। यह भाईचारे और आपसी प्रेम का त्योहार है। सरगुजा अंचल में स्थानीय जनजातीय समुदाय के लोग अपने पारंपरिक लोक त्योहारों के साथ हर्षोल्लास पूर्वक होली मनाते हैं। जिला पुरातत्व संघ सूरजपुर के सदस्य अजय कुमार चतुर्वेदी, राज्यपाल पुरस्कृत व्याखता ने सरगुजा अंचल की जनजातियों की होली पर शोध कार्य कर होली त्योहार से जुड़े आदिम जनजातियों की मान्यताएं और परंपराओं पर विस्तृत शोध आलेख तैयार किया है। उन्होंने बताया कि छत्तीसगढ़ के उत्तरांचल में जनजातीय बहुल संभाग सरगुजा है यहां गोंड, कंवर, उरांव, कोडाकू, कोरवा, पंडो, खैरवार, चेरवा और अघरिया जनजाति के लोग मुख्यतः निवास करते हैं। ये लोग जनजातीय त्योहारों के साथ-साथ होली भी पारंपरिक रीति-रिवाज के साथ मनाते हैं। इस त्यौहार से जुड़े सभी जनजातियों में अलग-अलग किंवदंती एवं मान्यताएं प्रचलित हैं।
कंवर जनजाति की होली-
सरगुजा अंचल में कंवर जनजाति के लोग फाल्गुन मास के पहले दिन से लेकर अंतिम दिन तक पूरे एक माह तक गांव में घूम - घूम कर सरगुजिहा बोली में होली गीतों का गायन झांझ, मंजिरा और मांदर वाद्य यंत्रों के साथ करते हैं। होलिका दहन के दिन इसी स्थल पर होली गीतों का गायन किया जाता हैं। कंवर जनजाति में होली के एक दिन पूर्व सम्मत भरा जाता है। इसके लिए गांव के बाहर एक स्थल का चयन किया जाता है। इस स्थल पर गाय के गोबर से पुताई कर सेमर वृक्ष की डाली को काट कर गाड़ा जाता है। इसके बाद गांव के सभी लोग मिलकर उसके चारों तरफ लकड़ियां इकट्ठा करते है। सेमर वृक्ष की डाली को गांव का कोटवार जंगल से काट कर लाता है। इनकी मान्यता है कि इस डाली को एक बार में ही काटा जाता है। गांव का बैगा (पुरोहित) सम्मत स्थल पर विधि विधान से पूजा अर्चना करता है। पूजा में चावल, अगरबत्ती, खर, जल रहता है। साथ ही एक काला चूजा चरा कर भरी हुई सम्मत में डालकर बैगा अग्नि सुलगाता है। सेमर के टुकड़े को प्रह्लाद का स्वरूप और उसके चारों तरफ रखी हुई अन्य लकड़ियों को होलिका का प्रतीक मानते हैं। अंत में होलिका (सभी लकड़ी) जल जाती है और प्रह्लाद (सेमर की लकड़ी) बच जाता है। सुबह होलिका दहन स्थल की राख को पांच लोग लेकर ग्राम देव स्थल पर जाते हैं। और महादेव - पार्वती को लगाते हैं। इसके बाद सभी लोग एक दूसरे को उसी राख का टीका और अबीर - गुलाल लगाकर होली खेलना प्रारंभ कर देते हैं। इसे ही धूर उड़ाना कहते हैं।
गोंड़ जनजाति की होली -
गोंड जनजाति में रेंड़ी वृक्ष की डाली को काट कर गाड़ा जाता है। इसके बाद गांव के सभी लोग मिलकर उसके चारों तरफ लकड़ियां इकट्ठा करते है। चटकाही रेंड़ी वृक्ष की डाली को गांव का बैगा (पुरोहित) काट कर लाता है। गांव का बैगा (पुरोहित) सम्मत स्थल पर विधि विधान से पूजा अर्चना करता है। पूजा में चावल, अगरबत्ती, खर, शराब, जल रहता है। साथ ही एक काला चूजा चरा कर भरी हुई सम्मत में डालकर बैगा अग्नि सुलगाता है। रेंड़ी वृक्ष (चटकाही रेड़ी)की डाली को प्रह्लाद और उसके चारों तरफ रखी हुई अन्य लकड़ियों को होलिका का प्रतीक माना जाता हैं।
चेरवा जनजाति की होली -
ओड़गी के ग्राम कुदरगढ़ निवासी चेरवा जाति के धनंजय बैगा उम्र 40 वर्ष ने बताया कि कुदरगढ़ क्षेत्र में ''हमारे समाज के लोग होली से दस दिन पूर्व फाल्गुन मास के शुक्ल पक्ष पंचमी को होली का त्योहार मनाते हैं। एक दिन पूर्व शाम को सम्मत भरा जाता है। गांव के बाहर एक स्थल का चयन कर वहां सेमर वृक्ष की डाली को काट कर गाड़ा जाता है। इसके बाद गांव के सभी लोग मिलकर उसके चारों तरफ लकड़ियां इकट्ठा करते हैं। सेमर वृक्ष की डाली को गांव का बैगा (पुरोहित) जंगल से काट कर लाता है। गांव का बैगा (पुरोहित) सम्मत स्थल पर विधि विधान से पूजा अर्चना करता है। पूजा में चावल, अगरबत्ती, खर, जल रहता है। साथ ही एक काला चूजा चरा कर जंगल में छोड़ दिया जाता है। और सम्मत में मुर्गी का एक अंडा डालकर बैगा अग्नि सुलगाता है। सेमर के टुकड़े को प्रह्लाद और उसके चारों तरफ रखी हुई अन्य लकड़ियों को होलिका का प्रतीक मानते हैं।
पंडो जनजाति की होली -
ओड़गी विकासखंड के ग्राम लांजीत निवासी अतवारी पंडो उम्र 55 वर्ष ने बताया कि गांव के बाहर एक स्थल का चयन कर वहां चिरचिटा वृक्ष (तेंदू वृक्ष) की डाली को काट कर गाड़ा जाता है। इसके बाद गांव के सभी लोग मिलकर उसके चारों तरफ लकड़ियां इकट्ठा करते है। गांव का बैगा (पुरोहित) जंगल से चिरचिटा वृक्ष (तेंदू वृक्ष) की डाली को काट कर लाता है। इस डाली के लेने ग्रामीण लोग भी गाजे - बाजे के साथ जाते हैं। और नाचते-गाते हर्षोल्लास पूर्वक लेकर आते हैं। गांव का बैगा सम्मत स्थल पर विधि विधान से पूजा अर्चना करता है। सुबह सभी लोग अबीर-गुलाल और रंग जलती हुई होलिका में डालने के बाद एक दुसरे को लगाकर भाईचारे और आपसी प्रेम का परिचय देते हैं। चिरचिटा वृक्ष (तेंदू वृक्ष) के टुकड़े को प्रह्लाद और उसके चारों तरफ रखी हुई अन्य लकड़ियों को होलिका का प्रतीक मानते हैं। पंडो समाज में मान्यता प्रचलित है कि होलिका दहन की राख के उपयोग से बुखार, खाज-खुजली और खसरा ठीक होता है।
होलिका दहन में डालते हैं सेमर वृक्ष की डाली-
जिला बलरामपुर-रामानुजगंज अंतर्गत वाड्रफनगर, ग्राम कोगवार निवासी अखिलेश कुमार पंडो ने बताया कि वाड्रफनगर क्षेत्र के कुछ गांवों में होलिका दहन में सेमर वृक्ष की डाली गाड़ा जाता है। अंबिकापुर, ग्राम पंचायत चठिरमा के आश्रित गांव बढ़नी झरिया निवासी नरेश प्रसाद पंडो ने बताया कि हमारे क्षेत्र में बैगा के पूजा कराने के बाद गांव का बुजुर्ग व्यक्ति होलिका दहन करता है। होलिका दहन में सेमर वृक्ष की डाली रहता है। उन्होंने बताया कि मान्यता प्रचलित है कि होलिका दहन स्थल की राख को दलदल खेत और फल न लगने वाले वृक्ष में डालने से ठीक हो जाता है। पंडो जाती में होलिका दहन के बाद बीच में बची हुई लकड़ी को अपने पारंपरिक हथियार तीर-धनुष से निशाना लगाया जाता है। निशाना लगाने के संबंध में मान्यता प्रचलित है कि इससे बुराई, वैर और उत्पीड़न की प्रतीक होलिका (जलाने की लकड़ी) प्रतीकात्मक रूप प्रह्लाद से दूर हो जाए। इसके बाद बची हुई लकड़ी के टुकड़े से सभी को टीका लगाकर, उस स्थल की राख को चारों तरफ फेंक कर धूर उड़ाते हैं, और यहीं से होली खेलना प्रारंभ कर देते हैं।
उरांव जनजाति की होली -
उराव जनजाति में होली के पूर्व शाम को होलिका दहन के लिए सम्मत भरा जाता है। इसके बीच में सेमर की लकड़ी गाड़ी जाती है। चारों तरफ अन्य लकड़ियां रखी जाती हैं। सेमर की लकड़ी को गांव का बैगा (पुरोहित) जंगल से काट कर लाता है। और विधि विधान से होलिका दहन स्थल पर गाड़ता है। भोर में दारू, फूल, अच्छत, चावल, जल और अगरबत्ती से पूजा अर्चना कर होलिका दहन करता है। उरांव जनजाति के सरगुजा जिले के विकास खंड सीतापुर, ग्राम पंचायत ढ़ोढ़ागांव के आश्रित ग्राम बोड़ा झरिया निवासी सुंदर राम किंडो उम्र 60 वर्ष ने बताया कि हमारे समाज में इस स्थल की अग्नि को अपने घर ले जा कर उसी से घर का चूल्हा जलाकर पकवान पकाया जाता है। ऐसी मान्यता है कि होली के दिन से घर में अच्छाई रूपी अग्नि प्रज्वलित होती है, इसलिए अेसा किया जाता है।
कोड़ाकू जनजाति की होली -
कोड़ाकू जनजाति में होलिका दहन के दिन शाम से ही पारंपरिक वाद्य यंत्र से लैस होकर फाग गीत गाया जाता है। जिला बलरामपुर-रामानुजगंज, विकासखंड बलरामपुर, ग्राम पंचायत चंपापुर निवासी बेनेदिक कुम्हारिया उम्र 40 वर्ष ने बताया कि होली की पूर्व संध्या में सभी गांव वाले सम्मत भरते हैं। सम्मत के बीच में सेमर की लकड़ी को बैगा (पुरोहित) द्वारा पूजा अर्चना कर गाड़ा जाता है। सेमर की लकड़ी लेने बैगा के साथ चार-पांच कुंवारे लड़के जंगल जाते हैं। और कुंवारे सेमर की लकड़ी काट कर लाते हैं। कुंवारा लकड़ी का मतलब जिस पर कभी टांगी न चलाई गई हो। ग्रामीण लोग पटाखे फोड़ कर खुशियां मनाते हैं। जब पूरी लकड़ी जल जाती है, तो बची हुई सेमर की ठूंठ को गामीण लोग 50 फीट की दूरी से पत्थर से निशाना लगाते हैं। जिसका निशाना लग जाता है। उसे ग्राम प्रमुख के द्वारा एक महुआ का पेड़ इनाम में दिया जाता है। इसके बाद सेमर की ठूंठ को जमीन के बराबर काटा जाता है। फिर खोदकर निकालते हैं। और उसे चार भाग में फाड़ कर वहीं छोड़ देते हैं। सभी लोग वहां की राख से ही होली खेलना प्रारंभ कर देते हैं।
जनजातियों में होली आपसी प्रेम का प्रतीक-अजय चतुर्वेदी
फोटो-4-अजय चतुर्वेदी
सरगुजा अंचल के विभिन्न जनजातियों के जीवन शैली, रहन- सहन, पर्व त्यौहारों, आचार- विचार पर लगातार काम कर रहे व कई शोध कर चुके राज्यपाल पुरस्कृत शिक्षक अजय कुमार चतुर्वेदी बताते हैं कि सरगुजा अंचल के विभिन्न जातियों जनजातियों द्वारा भले ही अलग-अलग तरीके से होली मनाया जाता है और सबका उद्देश्य एक ही है वह है आपसी प्रेम व सद्भाव। सभी जनजातियों में होली आपसी प्रेम व सद्भाव का प्रतीक है। इस तरह हम देखते हैं कि सरगुजा अंचल में जनजातियां अपनी अलग-अलग मान्यताएं और किंवदंतियों के साथ परंपराओं का निर्वहन करते हुए भाई-चारे, मेल-जोल, आपसी प्रेम और सौहाद्र के साथ होली का त्योहार मनाते हैं।