गिधौरी। गिधौरी, टुंडरा सहित शिवरीनाराण क्षेत्र के गांवों में छेरछेरा पर्व से पहले ही डंडा नृत्य की धूम है। डंडा नृत्य छेरछेरा से एक से दो हफ्ता पहले प्रारंभ कर देते हैं लगभग प्रत्येक गांव में बच्चों से लेकर ब़ूढे तक डंडा नृत्य करते हैं। इसका समापन पौष महीने की पूर्णिमा यानी छेरछेरा के दिन होगा। डंडा नृत्य करने वाली लाल चुनरिया डंडा नृत्य पार्टी के नर्तक विभिन्ना प्रकार की वेशभूषा में हैं और अपने डंडे को भी रंगों से सुंदर बनाए होते हैं। डंडा नृत्य कर नृतक पुरस्कार के रूप में धान, पैसा प्राप्त करते हैं।
लोक परंपरा के अनुसार पौष महीने की पूर्णिमा को प्रतिवर्ष छेरछेरा का त्योहार मनाया जाता है। गांव के युवक घर-घर जाकर डंडा नृत्य करते हैं और अन्ना का दान मांगते हैं। धान मिंसाई हो जाने के चलते गांव में घर-घर धान का भंडार होता है, जिसके चलते लोग छेर छेरा मांगने वालों को दान करते हैं। छेरछेरा से पहले गांवों डंडा नृत्य शुरू हो गया है। डंडा नृत्य पुरुषों का सर्वाधिक कलात्मक और समूह नृत्य है। इस नृत्य में ताल का विशेष महत्व होता है। डंडों की मार से ताल उत्पन्ना होता है। इसी कारण इसे डंडा नृत्य कहा जाता है। इस नृत्य में सम संख्यक नर्तक होते हैं। एक कुहकी देने वाला (जिससे नृत्य की गति और ताल बदलता है), एक मांदर वादक और दो-तीन झांझ मंजीरा बजाने वाले होते हैं। इनके चारों ओर शेष नर्तक वृत्ताकार नाचते हैं। नर्तकों के हाथ में एक या दो डंडा होता हैं। इसका प्रथम चरण ताल मिलाना है। दूसरा चरण कुहका देने पर नृत्य चालन और उसी के साथ गायन होता है। नर्तक एक दूसरे के डंडे पर डंडे से चोट करते हैं, कभी उचकते हुए, कभी नीचे झुककर और अगल-बगल को क्रम से डंडा देते हुए झूम झूमकर फैलते-सिकुड़ते वृत्तों में त्रिकोण, चतु कोण और षटकोण की रचना करते हुए नृत्य करते हैं। इसमें लोक जीवन की सुंदर झांकी होती है। यह झांकी को देखने में बहुत सुंदर लगता है। डंडा नृत्य कार्तिक से फागुन मास तक होता है। पूस पूर्णिमा यानी छेरछेरा के दिन इसका समापन होता है।