भैंसा। नईदुनिया न्यूज
ग्राम कोरासी में शादी से पहले दूल्हा देवजी की पूजा की जाती है। लोक परंपराओं में ग्रामीण क्षेत्रों में शादियों को लेकर कई तरह की मान्यताएं प्रचलित हैं। लोक परंपरा देवों की श्रेणी में वे देव भी शामिल होते हैं जिनकी पूजा सभी गांव में होती है। छत्तीसगढ़ में धूमधाम से मनाया जाने वाला एक पर्व है अक्षय तृतीया। इस पर्व के अवसर पर हम बताने जा रहे हैं एक ऐसे गांव की परंपरा जहां मांगलिक कार्य होने से पहले दूल्हा देव की पूजा की जाती है। ग्राम कोरासी में यह परंपरा चली आ रही है।
पहले दिन चुलमाटी की रस्म पूरी की जाती है। इस रस्म की अपनी विशेष और आध्यात्मिक महत्व है। यह रस्म कुंवारी मिट्टी लाकर की जाती है। घर की सयिां ढेड़हीन (सुवासिन) नए वस्त्र पहनकर देवस्थल या जलाशय के पवित्र स्थान में जाकर सब्बल से मिट्टी खोदने की रस्म पूरी की जाती है।
चुलमाटी के साथ ही शुरू होता है तेल हल्दी का कार्यक्रम
चुलमाटी के साथ ही तेल हल्दी का कार्यक्रम शुरू होता है। जिसमें घर के आंगन में बांस बल्ली गाड़कर मड़वा बनाया जाता है। जहां कलश की स्थापना कर वर या वधु को तेल हल्दी का लेप लगाया जाता है। इस मौके पर खास लोक गीत गाया जाता है। कोरासी में दूल्हा देव की पूजा से ही शादी की रस्मों की शुरुआत होती है। इस गांव में दूल्हा देव की पूजा के लिए गांव में चबूतरे बने हैं। जहां विभिन्ना त्योहारों पर भी परंपरागत रूप से इनकी पूजा की जाती है। लोक परंपराओं, ग्रामीण क्षेत्र में यहां के लोगों में बड़ी श्रद्घा होती है। इन्हीं श्रद्घा के चलते मंगल कार्यों या शादियों की रस्मों में प्रमुखता आज भी प्रचलित है।
चुलमाटी का बड़ा महत्व
ग्रामीण परिवेश में चुलमाटी का बड़ा ही महत्व है। ज्यादातर ग्रामीण क्षेत्रों में तीन दिन की शादियों में प्रथम दिन चुलमाटी में जाकर ग्रामीण दूल्हादेव से शादी की कार्यक्रमों को सफल बनाने की कामना करते हैं। माना जाता है कि इनमें कई तरह की किवदंतियां भी प्रचलित हैं। शादी-विवाह के शुभ अवसर पर इनकी पूजा की जाती है। यहां तक कि इन्हें निमंत्रण देने के बाद ही कार्यक्रम को आगे बढ़ाया जाता है। जहां पर शादियों से पहले परंपरागत रूप से भगवान दूल्हा देव पूजा की जाती है फिर शादी शादियों की अन्य रस्मे अदा की जाती है। गांव के उम्रदराज बावा राम वर्मा ने बताया कि हम यह परंपरा सदियों से निभाते आ रहे हैं तथा पूर्वजों द्वारा भी इनकी पूजा की जाती थी जिसे आज भी हम इस परंपरा का निर्वहन कर रहे हैं।