दल्लीराजहरा। आदिवासी आदिवासी बहुल क्षेत्र विकास खंड डौंडी क्षेत्र अंतर्गत आज छत्तीसगढ़ का विख्यात पर्व छेरछेरा मनाया जाएगा। कोरोना के चलते इस बार सादगीपूर्ण इस त्योहार को मनाया जाएगा। छेरछेरा छत्तीसगढ़ में हर्ष और उल्लास के साथ मनाया जाने वाला त्योहार है।
इस दिन युवक-युवती व बच्चे समेत बुजुर्ग भी छेरछेरा मागने घर-घर जाते हैं।
छत्तीसगढ़ में छेरछेरा त्योहार का अलग ही महत्व है। सदियों से मनाया जाने वाला यह पारंपरिक लोक पर्व अलौकिक है, क्योंकि इस दिन रुपये पैसे नहीं बल्कि अन्न का दान करते हैं। सोमवार को यह त्यौहार मनाया जाएगा, क्योंकि 17 जनवरी को पौष महीने की पूर्णिमा तिथि यानी पौष शुक्ल पक्ष 15 तिथि है।
धन की पवित्रता के लिए मनाया जाता है त्योहार
अपने धन की पवित्रता के लिए छेरछेरा त्योहार मनाया जाता है। लोगों की अवधारणा है कि दान करने से धन की शुद्धि होती है। छेरछेरा तिहार मुख्यतः छत्तीसगढ़ में मनाया जाने वाला पर्व है, क्योंकि धान का कटोरा कहलाने वाला भारत का एक मात्र प्रदेश छत्तीसगढ़ एक कृषि प्रधान प्रदेश है। यहां पर ज्यादातर लोग किसान वर्ग के निवास करते हैं। कृषि ही जीवकोपार्जन का मुख्य साधन है। यही वजह है कि कृषि आधारित जीवकोपार्जन व जीवन शैली आस्था और विश्वास ही अन्न दान करने का पर्व मनाने की प्रेरणा देते हैं। छेरछेरा पुन्नाी अर्थात पौष माह की शुक्ल पक्ष 15वीं तिथि को पौष पुन्नाी अर्थात छेरछेरा त्योहार कहा जाता है, पौष माह यानी कि जनवरी माह तक अन्न का भंडारण कर लिया जाता है। अतः पौष माह की पूर्णिमा को छेरछेरा त्यौहार मनाया जाता है। 17 जनवरी को शासकीय अवकाश भी दिया गया है, हालांकि यह अवकाश ऐच्छिक अवकाश है। छेरछेरा पर कोविड-19 कोरोनावायरस के नियमों को देखते हुए मनाया जाएगा ।
बच्चों की टोलिया निकलती है
बच्चों की टोलियां घर-घर जाएंगे और छेरछेरा, माई कोठी के धान ल हेर हेरा की आवाज लगाएंगे। तब उन्हें धान या चावल का दान करते हुए लोग अन्नदान करेंगे। इस अवसर पर मां अन्नपूर्णा की पूजा भी की जाएगी। ऐसे में सुबह से ही घरों में पूजा-अर्चना की जाएगी। इसके साथ ही मीठा चीला, गुलगुला समेत अन्य पारंपरिक व्यंजन बनाए जाएंगे। इसे सबसे पहले अपने घर के ईष्ट देव को अर्पित किया जाएगा। फिर घर के सभी सदस्य प्रसाद के रूप में ग्रहण करेंगे। वहीं बच्चे सुबह से ही झोले व बोरियां लेकर निकल जाएंगे और टोलियां बनाकर घर-घर जाकर छेरछेरा मांगेंगे।
बड़े भी मांगते हैं छेरछेरा
बच्चे ही नहीं बड़े भी इस मौके पर छेरछेरा मांगने जाते हैं, पर अंतर यह रहता है कि वे टोलियां बनाकर डंडा नाच भी करते हैं। दल में मांदर, ढोलक, झांझ, मजीरा बजाने वालों के साथ ही गाने वाले भी रहते हैं। घर-घर व गलियों में गाते हुए वे जाते हैं और उन्हें भी सूपा में धान भरकर दिया जाता है। यह दौर भी पूरे समय तक चलेगा। वहीं दान में मिले धान को बेचकर सभी उसी दिन या फिर कोई एक दिन तय कर पिकनिक मनाने जाएंगे।
यह है कथा
पंडित प्रेम शुक्ला ने बताया कि रतनपुर के राजा कल्याण साय मुगल बादशाह जहांगीर के दरबार में सात वर्ष तक रहे थे। वहां से वापस आए तो अपने राजा को देखने के लिए प्रजा गांव- गांव से रतनपुर पहुंचे थे। वे राजा की एक झलक पाने को व्याकुल थे। इस बीच राजा अपने कामकाज व राजकाज की जानकारी लेने में व्यस्त हो गए जिससे उनका ध्यान अपनी प्रजा से हट गया था। ऐसे में प्रजा निराश होकर लौटने लगे, तब रानी फुलकइना ने उन्हें रोका और इसके लिए स्वर्ण मुद्राओं की वर्षा कराई। इसके साथ ही हर साल इस तिथि पर राजमहल आने की भी बात कही। उस दिन पौष पूर्णिमा की तिथि थी। तभी से यह लोकपर्व मनाया जा रहा है। साथ ही धान के दान को वही स्वर्ण मुद्राएं माना जाता है जो रानी फुलकइना ने प्रजा पर बरसाए थे।