Chhattisgarh News: बिलासपुर। पारंपरिक भारतीय संस्कृत-हिंदी साहित्य में प्रेमी-प्रेमिका के बीच संदेश लाने ले जाने वाले वाहक के रूप में शुक (तोता) का मुख्य स्थान रहा है। मानवों की बोलियों का हूबहू नकल करने के गुण के कारण व सदियों से घर में पाले जाने वाला यह जीव खासकर कन्याओं व नारियों का प्रिय माना जाता है। इस पक्षी को साक्षी मानकर उसे अपने मन की बात तरी नरी नहा ना री नहना, रे सुवा ना, कहि आते पिया ला संदेस कहकर वियोगिनी नारी इन लोकगीतों के अनुसार यह संतोष करती रहीं कि उनका संदेशा उनके पति-प्रेमी तक पहुंच रहा है। कालान्तर में सुआ के माध्यम से नारियों के संदेश गीतों के रूप में गाए जाने लगे और प्रतीकात्मक रूप में सुआ का रूप मिट्टी से निर्मित हरे रंग के तोते ने ले लिया। साथ ही इसकी लयात्मकता के साथ नृत्य भी जुड़ गया। इस तरह सृजित हुआ सुआ नृत्य या नाच का।
सुआ नृत्य गीत कुमारी कन्याओं व विवाहित स्त्रियों द्वारा समूह में गाया और नाचा जाता है। इस नृत्य गीत की परंपरा के अनुसार बांस की बनी टोकरी में धान रखकर उस पर मिट्टी का बना, सजाया हुआ सुवा रखा जाता है। लोक मान्यता है कि टोकरी में विराजित यह सुवा की जोड़ी शंकर और पार्वती के प्रतीक होते हैं। सुवा नृत्य सामान्यतया संध्या को आरंभ किया जाता है। गांव के किसी निश्चित स्थान पर महिलाएं एकत्रित होती हैं जहां इस टोकरी को लाल रंग के कपड़े से ढंक दिया जाता है।
टोकरी को सिर में उठाकर दल की कोई एक महिला चलती है और किसानों के घर के आंगन के बीच में उसे रख देती हैं। दल की महिलाएं उसके चारों ओर गोलाकार खड़ी हो जाती हैं। टोकरी से कपड़ा हटा लिया जाता है और दीपक जलाकर नृत्य किया जाता है। छत्तीसगढ़ में इस गीत नृत्य में कोई वाद्ययंत्र उपयोग में नहीं लाया जाता। महिलाओं द्वारा गीत में तालियों से ताल दिया जाता है। कुछ गांवों में महिलाएं ताली के स्वर को तेज करने के लिए हाथों में लकड़ी का गुटका रख लेती हैं। छत्तीसगढ़ से सौ साल पहले असम गए असमवासी छत्तीसगढ़िया भी इस नृत्य गीत परंपरा को अपनाए हुए हैं, हालांकि वे सुवा नृत्य गीत में मांदर वाद्य का प्रयोग करते हैं जिसे पुरुष वादक बजाता है।
दीपावली से पहले शुरुआत
प्राचीन परंपरा में सुवा गीत नृत्य करने महिलाएं जब गांव में किसानों के घर-घर जाती थीं तब उन्हें उस नृत्य के उपहार स्वरूप पैसे या अनाज दिया जाता था। इसका उपयोग वे गौरा-गौरी के विवाह उत्सव में करती थीं। यहां ध्यान देने योग्य बात यह है कि तब सुवा नृत्य से उपहार स्वरूप एकत्र राशि से गौरा-गौरी का विवाह किया जाता था। इससे यह स्पष्ट है कि सुवा नृत्य का आरंभ दीपावली के पहले से ही हो जाता है।
ये होता है पारंपरिक पहनावा, आया बदलाव
पारंपरिक रूप से सुवा नृत्य करने वाली नारियां हरी साड़ी पहनती हैं जो पिंडलियों तक आती है। आभूषणों में छत्तीसगढ़ के पारंपरिक आभूषण करधन, कड़ा, पुतरी होते हैं। इन परंपराओं में बदलाव भी हुआ है। आज सुआ नृत्य और गीत का स्वरूप बदल गया है। छत्तीसगढ़ का पहनावा साड़ी और करधन, कड़ा, पुतरी भी अब देखने में नहीं आता है। गीतों के बोल आधुनिक हो रहे हैं फिल्मीकरण हो रहा है। सुआ नृत्य में लड़कियां अब आधुनिक परिधान पहन रही हैं।
आज भी अलिखित हैं गीत
सुआ के गीत कितने प्राचीन हैं यह किसको मालूम? किंतु इतना तो निश्चित है कि यह गीत उतने ही प्राचीन हैं जितने उनमें व्याप्त भावनाएं प्राचीन हैं। यह भी संभव है कि कालिदास और जायसी ने इन गीतों से प्रेरणा ली हो। यह गीत तो आज भी अलिखित ही हैं। पीढ़ी-दर-पीढ़ी मौखिक ही चले आ रहे हैं। रायगढ़ से कांकेर और सराईपाली से डोंगरगढ़ तक सुवा गीत अपने विभिन्न् स्वरूपों में बिखरा चला आ रहा है।