बिलासपुर(नईदुनिया प्रतिनिधि)। श्राद्ध पक्ष को लेकर सनातन धर्म में रामकथा का विस्तृत विवरण है। इससे अधिकांश लोग अनभिज्ञ हैं। इन दिनों बिलासपुर के घर-घर में राम कथा सुनाई जा रही है। ताकि लोगों को सनातन धर्म और श्राद्ध को लेकर सही जानकारी मिल सके। पांच ज्योतिष मिलकर लोगों को इंटरनेट और घरों में जाकर श्राद्ध का महत्व बता रहे हैं। किस तरह से भगवान राम ने अपने पिता दशरथ के लिए श्राद्ध किया और ब्राह्मणों का महत्व बताया। पिंडदान से लेकर श्राद्ध की सभी जानकारी निश्शुल्क बांट रहे हैं। ताकि हिंदू परिवारों को श्राद्ध का सही नियम पता हो सके। इसके अलावा पूर्वजों की जानकारी एकत्र करने और उनकी मुक्ति के लिए किए जाने वाली विधि को भी विस्तार से बताया जा रहा है।
कालजयी मंदिर के पुजारी पंडित मनोज तिवारी का कहना है कि पितृपक्ष में भगवान राम द्वारा अपने पिता दशरथ के लिए किए गए पिंडदान को लेकर कथा है। इसे सभी को सुनना चाहिए। इन दिनों अधिकांश घरों में इस कथा का वाचन किया जा रहा है। पितरों की मुक्ति से लेकर घर परिवार में शांति और खुशहाली के लिए लोगों को जागरूक भी किया जा रहा है। कथा के अनुसार पितृतीर्थ पुष्कर में भगवान श्रीराम द्वारा श्राद्ध में ब्राह्मणों को भोजन कराने का उल्लेख है। पद्मपुराण में आया है कि प्राचीन काल में भगवान श्रीराम जब भगवती सीता तथा लक्ष्मण के साथ चित्रकूट से चलकर महर्षि अत्रिके आश्रम पर पहुंचे। तब उन्होंने मुनिश्रेष्ठ अत्रिसे पूछा- महामुने, इस पृथ्वी पर कौन-कौन से पुण्यमय तीर्थ हैं, जहाँ जाकर मनुष्य को अपने बन्धुओं के वियोग का दुख नहीं उठाना पड़ता। वहां का श्राद्धादि कर्म पितरों की सद्गति में हेतु बनता है। भगवन्! यदि कोई ऐसा स्थान हो तो कृपा करके वह मुझे बताइए।
मुनिवर अत्रि बोले- वत्स राम! आपने बड़ा उत्तम प्रश्न किया है। मेरे पिता ब्रह्माजीद्वारा निर्मित एक उत्तम तीर्थ है जो पुष्कर के नाम से विख्यात है। वहां जाकर आप अपने पितरों-दशरथ आदि को श्राद्धादि पिण्डदान से तृप्त करें, वहां पिण्डदान करने से पितरों की मुक्ति हो जाती है। यह सुनकर रामजी बड़े प्रसन्न हुए, उन्होंने पुष्कर जाने का मन बनाया। वे ऋक्षवान् पर्वत, विदिशा नगरी तथा चर्मण्वती को पारकर यज्ञपर्वत गए। वहाँ से मध्यम पुष्कर गए। वहां स्नान करके उन्होंने देवताओं तथा पितरों का तर्पण किया। उसी समय मुनिश्रेष्ठ मार्कण्डेय अपने शिष्यों के साथ वहां आए।
भगवान्ने महामुनि को प्रणाम किया और कहा- मुने! मैं महर्षि अत्रिकी आज्ञा से यहाँ अवियोगा तीर्थ में पितरों का श्राद्ध करने उपस्थित हुआ हूं। मार्कण्डेय ने कहा- रघुनन्दन! आप बड़ा ही पुण्यकार्य करने जा रहे हैं। आप यहां राजा दशरथ का श्राद्ध कीजिए। हम सभी विप्रगण श्राद्धमें उपस्थित रहेंगे। श्रीरघुनाथजी से ऐसा कहकर वे सभी ऋषि स्नानके लिये चले गए। इधर श्रीरामजी ने लक्ष्मणजी को श्राद्धबकी सामग्री एकत्रित करनेके लिए कहा। श्री लक्ष्मणजी जंगल से अच्छे-अच्छे फलों को ले आए। श्री जानकीजी ने भोजन बनाया। श्रीरामजी अवियोगा नामकी बावलीमें स्नानकर मुनियोंके आनेकी प्रतीक्षा करने लगे। दोपहरी में जब कुतप वेला में आई, उसी समय ऋषिगण उपस्थित हो गए।
मुनियों को आया देख सीता माता वहां से हट गईं और झाड़ियों के पीछे हो गईं। श्री रामचन्द्र जी विधिबपूर्वक श्राद्ध में ब्राह्मणों को भोजन कराने लगे। श्राद्ध की प्रक्रिया पूर्ण करके ब्राह्मणों के विसर्जन के अनन्तर श्री रामजी ने देवी सीता से कहा प्रिये! यहाँ आये मुनियों को देखकर तुम छिप क्यों गयी? सीताजी बोलीं- नाथ! मैंने जो आश्चर्य देखा, उसे बताती हूं, सुनिए। आपके द्वारा नाम गोत्र का उच्चारण होते ही स्वर्गीय महाराज यहां आकर उपस्थित हो गए। उनके साथ उन्हीं के समान रूप-रेखावाले दो पुरुष और आये थे, जो सब प्रकारके आभूषण धारण किए हुए थे। वे तीनों ही ब्राह्मणों के शरीर से सटे हुए थे।
प्रभो ! ब्राह्मणों के अंगों में मुझे पितरों के दर्शन हुए। उन्हें देखकर मैं लज्जा के मारे आपके पास से हट गयी। इसीलिये आपने अकेले ही ब्राह्मणों को भोजन कराया और विधिपूर्वक श्राद्धकी क्रिया भी सम्पन्न की। भला! मैं स्वर्गीय महाराजके सामने कैसे खड़ी होती। यह मैंने आपसे सच्ची बात बतायी है। यह सुनकर श्री रामजी तथा लक्ष्मणजी को बड़ी प्रसन्नता हुई। इस कहानी को सभी को श्राद्ध के दौरान सुनना चाहिए।