रोशन सिन्हा
धमतरी। नईदुनिया
कम लागत में बेहतर उत्पादन प्राप्त करना हो तो बरबटी की खेती एक बेहतर उपाय है। धमतरी जिले की मिट्टी बरबटी की फसल के लिए अनुकूल है। यही कारण है कि धमतरी जिले में एक हजार से अधिक एकड़ से अधिक क्षेत्रफल में बरबटी की पैदावार सालभर में ली जा रही है। जिले के चारों ब्लॉक के किसान इसकी पैदावार लेकर आर्थिक रूप से सक्षम बन रहे हैं।
विभाग से मिली जानकारी के अनुसार धमतरी जिले की मिट्टी लगभग हरेक फसल के लिए उपयुक्त है। जिनमें से बरबट्टी भी एक है। सालभर ली जाने वाली बरबटी की फसल किसानों के लिए आय का बेहतर जरिया है। जिले के अरौद, लीलर, खरेंगा, बारना, सिवनी, नवागांव, सेमरा, झिरिया, ढीमरटीकुर, मांटेगहन, सारंगपुरी, बरारी सहित अन्य गांव में बड़े पैमाने पर इसकी फसल ली जा रही है। उद्यानिकी विभाग के फील्ड ऑफिसर जीआर लोहानी ने बताया कि बरबटी की फसल बारहों महीने ली जाती है। प्रमुख रूप से बरबट्टी की जामली, कश्मीरी लाल, उषा बरसाती, अरका, अनुप, अरका सुमन, श्यामली प्रजाति को ही किसान बोते हैं। गर्मी की तुलना में बारिश के मौसम में उत्पादन लागत कम आती है। भिंडी की पैदावार लेने के बाद बरबटी की फसल लगाने से काफी फायदा होता है क्योंकि बरबटी की फसल को सूखे हुए भिंडी की फसल के ऊपर फैलने में आसानी होती है। साथ ही उत्पादन भी अच्छा मिलता है। इसके लिए अलग से मचान बनाने का खर्च भी नहीं लगता। इससे लगभग 20 से 30 हजार की बचत हो जाती है।
ग्राम मांटेगहन के तामेश्वर ध्रुव, ढीमरटीकुर के विभीषण केंवट, देवरी के गंगाराम ढीमर, सारंगपुरी के विश्राम सोनकर, बारना के मोतीराम साहू, भरारी के रामजग निषाद बरबट्टी की फसल ले रहे हैं। किसानों ने बताया कि बरबटी की उत्पादन लागत कम है, लेकिन इससे फायदा अधिक होता है। जैविक खाद के उपयोग से फसल उत्पादन बेहतर तरीके से होता है। मिट्टी की उर्वरा शक्ति भी बढ़ती है। किसानों ने बताया कि ज्यादातर लोकल मार्केट में इसकी बिक्री कर देते हैं। इसके अलावा साप्ताहिक हाट-बाजारों में भी बरबट्टी हाथों-हाथ बिक जाती है। अधिक उत्पादन होने की स्थिति में राजधानी रायपुर में इसका निर्यात करते हैं। यहां के थोक सब्जी विक्रेता काफी मात्रा में सब्जी खरीदकर इसे राजधानी रायपुर में बेच देते हैं।
फसल में रोग उपचार
बरबटी की फसल में मुख्य रूप से रस चूसने वाले कीट माहू, फुदका, फल छेदक जैसे कीट है है जो फसल को नुकसान पहुंचाते हैं। बरबटी की फसल में प्रमुख रूप प्रमुख रूप फसल में प्रमुख रूप प्रमुख रूप से चूर्णी फफूंद, मोजैक जैसी बीमारियां होती हैं, जिससे उत्पादन पर खासा असर पड़ता है। यदि समय पर देखरेख न की जाए तो बरबटी की फसल सूख कर मर भी जाती है। इसके लिए कृषि दवा विक्रेताओं से संपर्क कर दवा का छिड़काव करना चाहिए।
प्रति एकड़ 80 हजार से एक लाख रुपये तक की आय
बरबटी की फसल मौसम के ऊपर आधारित होती है। गर्मी में जहां लगभग पांच से छह किलो बीज से एक एकड़ में पैदावार ली जाती है तो वहीं बारिश के मौसम में आठ से नौ किलो बीज से एक एकड़ में पैदावार होती है। बीज की लागत, मजदूरी खर्च और अन्य खर्चों को मिला दिया जाए तो 30 हजार की लागत एक एकड़ फसल उत्पादन में आती है। बोआई के बाद सालभर उत्पादन लिया जा सकता है, जिससे 80 हजार से एक लाख तक की आय किसानों को हो जाती है। एक बार बीज लगाने के बाद साल भर भर तोड़ाई की जा सकती है। तोड़ाई के बाद जड़ों में खाद पानी और गुड़ाई कर दी जाए तो फिर से अच्छा उत्पादन मिलता है।
उद्यानिकी विभाग के उपसंचालक डीएस कुशवाहा ने बताया कि शासन द्वारा किसानों को विभिन्न योजनाओं के तहत जानकारी दी जाती है। इसके अलावा समय समय पर मुफ्त में बीज का वितरण भी किया जाता है।
प्रोटीन का मुख्य साधन है बरबट्टी
डायटीशियन पुष्पेंद्र साहू ने बताया कि फल्लीदार सब्जियों में बरबटी का एक प्रमुख स्थान है। यह प्रोटीन (मुख्यतः एमिनो एसिड) का बड़ा अच्छा स्रोत है। इसमें फाइबर्स की मात्रा भी खूब पाई जाती है। बरबटी में पाए जाने वाले फाइबर्स पाचन प्रक्रिया को दुरुस्त करने के अलावा पेट की देखभाल में काफी कारगर होते हैं। बरबटी कबाब में लहसुन, जीरा और धनिया का पाउडर, स्वाद को तो बेहतर ही बनाता है और आपकी पाचन प्रक्रिया को बेहतर बनाता है।
जैविक खाद के उपयोग से बढ़ती है पैदावार
संबलपुर स्थित कृषि विज्ञान केंद्र के कृषि वैज्ञानिक एसएस चंद्रवंशी ने बताया कि वर्मी कंपोजिट खाद या जैविक खाद के इस्तेमाल से फसल की पैदावार में तीन से चार में फायदा दिखने लगता है, लेकिन किसान अधिक उत्पादन लेने के चक्कर में यूरिया और अन्य कैमिकल युक्त खाद का इस्तेमाल करते हैं। हालांकि जैविक खाद से पहले तीन साल तक कास्ट थोड़ा अधिक आता है। एक एकड़ में एक हजार किलो जैविक खाद लगती है। इसकी बाजार में कीमत करीब आठ हजार रुपये होती है। किसान इसे अपने यहां भी बना सकते हैं। जिसकी कास्ट तीन से चार रुपये प्रतिकिलो आएगी यानी खर्च आधे से भी कम हो जाएगा। इससे खेतों में हमेशा नमीं बनी रहती है। वहीं खाद्य पदार्थों का स्वाद नेचुरल होता है। इसके मिनरल्स पर्याप्त मात्रा में लंबे समय तक बने रहते हैं। चार से पांच साल के भीतर खेतों की उर्वरा शक्ति बढ़ने के साथ ही खेती में लागत कम हो जाती है।