जशपुरनगर(निप्र)। आज सूखा और अकाल की चिंता को लेकर देश भर में चर्चा हो रही है। ऐसे दौर में आदिवासी किसान अब इस बात को लेकर अफसोस कर रहे हैं कि देसी धान के बीजों का संरक्षण किया होता तो आज यह दिन नहीं देखना पड़ता।
जानकारों का मानना है कि पारंपरिक देसी बीज लगाने से जोखिम काफी कम होने के साथ ही देसी बीजों का प्रयोग स्वास्थ्य दृष्टिकोण से काफी अच्छा है। कम बारिश में भी किसानों को क्षति नहीं होती है। इस मानसून में धान की बुआई करने के लिए 10 दिन रह गए हैं और इस दौरान की वर्षा के मुताबिक ही इस वर्ष के फसल का भविष्य निर्धारित होना है। सैकड़ों किसानों ने इस वर्ष फसल नहीं लेने का निर्णय ले लिया है और जानकार यह भी मान चुके हैं कि जिले में जितनी बारिश होनी थी, उतनी नहीं होने के कारण उत्पादन 30 से 60 प्रतिशत तक प्रभावित हो सकता है। ऐसे में लुप्त हो रही धान की प्रजातियों को लेकर किसानों व जानकारों की चिंता बढ़ने लगी है। जिले के आधे से अधिक पारंपरिक धान बीज लुप्त हो चुके हैं और नई पीढ़ी को तो पारंपरिक धान बीज का नाम तक नहीं जानती है।
लुप्त हो रही धान की ये प्रजाति
कई धान के पारंपरिक और देसी बीज ऐसे हैं, जिनका नई पीढ़ी को नाम भी याद नहीं और कृषि जगत से जुड़ी पत्र, पत्रिकाओं में प्रकाशित आलेखों से भी ये नाम गुम हो गए हैं। भारतीय किसान संघ के प्रदेश महामंत्री गणेश नारायण मिश्र ने बताया कि धान बीज में करहनी धान को धान की जननी माना जाता है। उन्होंने बताया कि धान की इस प्रजाति की विशेषता है कि यह बाली निकलने से पहले ही पक जाता है और बारिश नहीं होने पर भी किसानों को क्षति नहीं होती। इसी प्रकार जेजने, लुचई, बोरा धान, बूढ़ा धान जैसे बीज बिल्कुल विलुप्ति के कगार पर है और प्रचलन में भी देखने को नहीं मिलते। इसके अतिरिक्त जीराफूल, दुबराज, कालाजीरा ऐसे पारंपरिक धान बीज हैं, जिन्हें लोग जानते हैं पर बाजार में भी नहीं मिलते और प्रजाति लुप्त हो रही है।
बीमारी लेकर चीन से आया पहला हाईब्रिड धान
कृषक समुदाय से जुड़े जानकारों के मुताबिक भारत में पहली बार ताइच्यून नामक धान का बीज चीन से आया था। इस बीज के साथ माहो, बाकई जैसी करीब आधे दर्जन बीमारियों का नाम भी अस्तित्व में आया, जो विदेशों के माध्यम से यहां पहुंचे। आज गाजर घास की समस्या किसानों के लिए विकराल रूप धारण करती जा रही है। गाजर घास की फसलों में यह समस्या अमेरिका से आई। 1970- 80 के दशक में इन समस्याओं ने भारत में अपनी जमीन तैयार करनी शुरू कर दी थी। इसी दौरान विपुल उत्पादन के नाम से पदमा, जया नामक बीजों को उन्नत बीज का नाम देकर किसानों तक पहुंचाया गया।
तीन गुना अधिक पानी की आवश्यकता
वनस्पति विज्ञान के प्राध्यापक बीआर राठिया के मुताबिक पारंपरिक धान के बीजों की अपेक्षा हाईब्रिड धान के बीजों में तीन गुना अधिक पानी की आवश्यकता पड़ती है, इसके बाद भी जमीन को पर्याप्त आवश्यक तत्व प्राप्त नहीं होते। बारिश में उतार-चढ़ाव पहले भी होता रहा है, लेकिन इतनी कठिनाई पहले नहीं हुई। उनका मानना है कि पारंपरिक बीज कम बारिश होने पर भी अच्छी फसल देते हैं।
20 साल के लिए जमीन हो जाती है बंजर
जानकारों का मानना है कि हाईब्रिड बीज के लगातार प्रयोग के बाद जमीन बंजर हो जाते हैं। हाईब्रिड बीज के उपयोग के दौरान उर्वरकों का प्रयोग आवश्यक हो जाता है। उर्वरकों के प्रयोग से यदि पांच साल तक हाईब्रिड बीजों का रसायनों के साथ उपयोग किया जाता है तो आगामी 20 सालों के लिए जमीन की उर्वरा शक्ति प्रभावित हो सकती है।
आत्महत्या के मामले बढ़े
अधिवक्ता रामप्रकाश पांडेय का मानना है कि रासायनिक खाद व दवाओं के प्रयोग के बाद किसानों के अवसादग्रस्त होने की बात से इंकार नहीं किया जा सकता है। प्रशासन के आंकड़ों पर ही नजर डालें तो पिछले पांच वर्षों में देखा गया है कि हर वर्ष लगभग 25 से 50 किसान अवसादग्र्रस्त होकर आत्महत्या कर रहे हैं। इसका कारण हाईब्रिड बीजों के आने के बाद कीट, पतंगों व बीमारियों का बढ़ना है। किसानों के आत्महत्या में कई बार यह देखा गया है कि अवसादग्रस्त किसान व व्यक्ति कृषि में प्रयोग किए जाने वाले जहरीले कीटनाशकों का प्रयोग करता है जो बाजार में आसानी से मिल जाते हैं। पारंपरिक बीजों में इस प्रकार के कीटनाशक की आवश्यकता नहीं पड़ती थी। रासायनिक खादों के प्रयोग के स्थान पर गोबर खाद व देसी खाद का प्रयोग किया जाता था।
पारंपरिक धान बीजों का संरक्षण अत्यंत महत्वपूर्ण है और विभाग के द्वारा इसके लिए कार्य किया जा रहा है। कृषि महाविद्यालय में पारंपरिक धान के जींस संरक्षित रखे गए हैं।
आरके गोनेकर
उप संचालक, कृषि
हाईब्रिड बीज बांझ बीज हैं, जिसके प्रयोग के बाद उक्त भूमि पर दोबारा पारंपरिक रीति से फसल उत्पादन संभव नहीं होता है। हाईब्रिड बीजों के साथ कई बिमारियां आई हैं, जिसे हम बहुराष्ट्रीय कंपनियों का षडयंत्र बताते हुए पिछले 20 वर्षों से विरोध कर रहे हैं।
गणेश नारायण मिश्र
प्रदेश मंत्री, भारतीय किसान संघ
हाईब्रिड बीज के साथ उर्वरकों का प्रयोग अनिवार्य हो जाता है, जिससे जमीन की अवशोषण क्षमता कम होने के कारण इसका विपरीत प्रभाव जमीन पर पड़ता है और इसका लंबे समय तक खेतों की उर्वरा शक्ति पर प्रभाव पड़ता है।
बीआर राठिया
सहायक प्राध्यापक, वनस्पति विज्ञान जशपुर कालेज