जशपुरनगर(निप्र)। जिले सहित देश भर में उरांव जाति की आबादी 50 लाख से अधिक है। उरांव जाति की अपनी संस्कृति, परंपरा, बोली और गौरवशाली इतिहास है। इस जाति की सबसे बड़ी खासियत यह भी है कि इस जाति के लोग अपनी गोत्र परंपरागत रूप से वृक्षों, लताओं, पशुओं के नाम पर रखते हैं। वैवाहिक संबंध स्थापित करने में गोत्र की महत्वपूर्ण भूमिका होती है और आदिवासी वर्ग के इस जाति में एक गोत्र में विवाह नहीं किया जाता है। आज जब पर्यावरण समस्या को लेकर पूरी दुनिया में गोष्ठी और विभिन्न कार्यशाला का आयोजन किया जा रहा है, वहीं आदिवासी वर्षों पुराने पूर्वजों के समय से बने नियम, रस्मों का पालन करते हुए पर्यावरण संरक्षण का संदेश दे रही है। दुनिया में दो प्रकार के वर्ग बताते हुए आदिवासियों को समाज के मुख्य धारा में जोड़ने की बात कही जाति है, लेकिन आदिवासियों के कई ऐसे तथ्य हैं, जिन्हें देखते हुए लगता है कि नगरीय और खुद को शिक्षित, जागरूक कहने वाले समाज को आदिवासियों से सीख लेने और उनके ध्येय पर चलने की आवश्यकता प्रबलता के साथ महसूस की जाती है। जशपुर जिले के लगभग सभी विकासखंड और साढ़े सात सौ ग्रामों में उरांव जाति के लोग रहते हैं। उरांव समाज के जो गोत्र हैं, उसमें केरकेट्टा, किण्डों, कुजूर, टोप्पो, मिंज, तिर्की, पन्ना, खलखो, खेस, किसपोट्टा, बेक आदि के नाम से गोत्र रखे जाते हैं। इन गोत्रों के शब्दिक अर्थो को समझा जाए तो सभी गोत्र किसी न किसी लता, वृक्ष व पशुओं से जुड़े हैं। मान्यता है कि प्राचीन काल में जैव विविधता के संरक्षण के उद्देश्य से आदिवासी समाज के पूर्वजों ने अपनी गोत्र परंपरा को प्रारंभ किया था। सुदूर जंगलों में रहने वाला परिवार जिसे भी अपने परिवार का संरक्षक मानता था, उसे ही उन्होंने अपने गोत्र का नाम दिया। वनवासी हितरक्षा प्रमुख रामप्रकाश पांडेय ने बताया कि गोत्र परंपरा को आदिवासियों ने अत्यंत ही पवित्रता और विश्वास के साथ आत्मसात किया, जो उन्हें कहीं न कहीं प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष रूप से अनुशासित भी रखता। मान्यता है कि गोत्र के नाम का उच्चारण आदिवासी समाज विभिन्न शुभ अवसर पर ही करते है, जैसे पूजा, विवाह, त्योहार के अनुष्ठान, शुभ कार्यों के प्रारंभ सहित महत्वपूर्ण अवसरों पर अपने गोत्र के नाम का उच्चारण किया जाता है। यही कारण है कि हजारों वर्षों से चली आ रही गोत्र की परंपरा से पर्यावरण के सरंक्षण में महत्वपूर्ण भूमिका रही है।
अपने गोत्र से जुड़े वृक्ष और पशुओं की रक्षा
पर्यावरण संरक्षण में गोत्र परंपरा की महत्वपूर्ण भूमिका यह रही है कि आदिवासी जिस गोत्र के हैं, उससे संबंधित वृक्ष, लता एवं पशु पक्षियों को क्षति नहीं पहुंचाते और पूरा सम्मान देते हुए संबंधित जीव का संरक्षण करते हैं। यही कारण है कि आज भी वनवासी क्षेत्रों में कई ऐसे स्थान संरक्षित हैं, जहां विशेष प्रजाति के पौधे और पशु, पक्षी संरक्षित हैं। सरना स्थल इसी का एक उदाहरण है, जहां साल के पेड़ों की अधिकता होती है और आदिवासी इस स्थान को पवित्र मानते हुए वृक्षों की कटाई नहीं करते और यह स्थान देवस्थान के रूप में जाना जाता है। ऐसे स्थानों के सरंक्षण में आदिवासी अपने जान की बाजी लगाने में भी पीछे नहीं रहते हैं। आदिवासी संस्कृति के जानकारी रामप्रकाश पांडे सहित उरांव समाज के अध्यक्ष रामदयाल राम बताते हैं कि धर्मांतरण से ऐसी मान्यतांए कुछ प्रभावित हो रही हैं, लेकिन प्रयास किया जा रहा है कि उरांव समाज के लोग अपनी परंपरा को जीवंत रखते हुए अपने गोत्र से जुड़े जीवों को श्रद्घा भाव के साथ संरक्षित रखें।
क्या हैं आदिवासियों के गोत्र के शाब्दिक अर्थ
आदिवासियों में विशेष रूप से उरांव समाज के गोत्रों के संबंध में जानकारी देते हुए उरांव समाज के युवा कार्यकर्ता विनोद प्रधान ने बताया कि हर गोत्र का शाब्दिक अर्थ किसी न किसी जीव से है। उन्होंने कहा कि केरकेट्टा एक पक्षी का नाम है। इसी प्रकार किण्डों मछली व कुजूर जंगलों में पाए जाने वाले लता को कहा जाता है। टोप्पो पक्षी, मिंज विशेष प्रकार की मछली, तिर्की बाज पक्षी, पन्ना लोहा, खलखो व खाखा रात को विचरन करने वाले विशेष पक्षी के नाम हैं, वहीं खेस को धान, किसपोट्टा सुवर, बेक का शब्दिक अर्थ नमक व लकड़ा का शाब्दिक अर्थ बाघ है। इसी प्रकार अन्य गोत्र के नाम हैं और हर एक गोत्र का संबंध किसी न किसी वनस्पति, पशु, पक्षी और जानवरी से हैं, जिसका विशेषकर उसी गोत्र के लोगों के द्वारा विशेष रूप से सम्मान किया जाता है और अन्य गोत्र के लोग भी दूसरे गोत्र संबंधित जीवों का सम्मान करते हैं। आदिवासियों के गोत्र बेक, जिसका शब्दिक अर्थ नमक से है, का इतना सम्मान किया जाता है कि इसे धरती पर गिरने नहीं दिया जाता है और भूल से नमक जमीन पर गिर जाए तो पानी डालकर उसके स्वरूप में परिवर्तित किया जाता है।
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