
मल्हार। नगर पंचायत मल्हार में सन 1935 में एक खंडहरनुमा टीले की खुदाई से भगवान पातालेश्वर कल्पकेदारनाथ की जलहरि मिली। तब से महाशिवरात्रि के अवसर पर 15 दिवसीय मेला लगना शुरू हुआ।
अंग्रेजों के शासन में मल्हार के मालगुजार सेठ अयोध्या प्रसाद साव के नाम से मेला का नाम अयोध्या मेला मल्हार के नाम से विख्यात था। तब से आज पर्यंत इसकी प्रसिद्धी सुनकर दूर-दूर से यहां साधु महात्मा के आने का सिलसिला जारी है। यहां मालगुजार द्वारा मंदिर की खोदाई में महत्वपूर्ण योगदान दिया गया। वहीं मेले की प्रसिद्धी में भी इनका महत्वपूर्ण योगदान रहा। यह प्रसिद्ध और ऐेतिहासिक मंदिर स्थानीय पत्थर से निर्मित है। मंदिर वर्गाकार है जो नीचे से ऊपर की ओर संकरा होते गया है। 108 कोण युक्त मंदिर के सामने खूबसूरत प्लेटफार्म चौकोर है। यहां गर्भगृह में उतरने के लिए 10 सीढ़ी बनी हुई है। प्रवेश द्वार की दोनों ओर गंगा एवं यमुना की अत्यंत ही मनमोहक मूर्तियां स्थित है। पहले एक वर्ष तक इन्ही मूर्तियों की पूजा-अर्चना होती रही उसके बाद फिर से छत्तीसगढ़ के विद्वान एवं पुरातत्व के जानकार पं. लोचन प्रसाद पांडेय के मार्गदर्शन में एवं मालगुजार के सहयोग से खोदाई हुई तब एक वर्ष बाद मंदिर का शेष भाग एवं गर्भगृह के मध्य में काले ग्रेनाइट पत्थर से निर्मित जलहरि के मध्य में सफेद गोमती पत्थर से निर्मित यह गोमुखी आकार का विलक्षण शिवलिंग का दिव्य दर्शन आमजन को हुआ और दर्शनार्थियों की भीड़ उमड़ी। तब से महाशिवरात्रि पर्व पर मेला लगना शुरू हो गया। मल्हार मेला बिलासपुर जिले की महत्वपूर्ण मेले में से एक है। सन् 1937 में भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग भारत सरकार द्वारा इसे अधिग्रहित कर देखरेख में लिया गया।
सोमदत्त नामक ब्राह्मण महामंत्री द्वारा 11 वीं शताब्दी के इस ऐेतिहासिक मंदिर में सन् 1959-60 में पुरातत्व विभाग के क्षेत्रीय कार्यालय हैदराबाद के अधिकारियों ने मंदिर के अधूरे हिस्से को सुरक्षित कराया उसके पहले मंदिर में टीन शेड था। नगर के ओमप्रकाश पांडेय ने बताया कि सन 1960 में जब इस मंदिर में लेंटर हुआ तब अपने स्व. पिता पं. छेदीलाल पांडेय के साथ अपने भाइयों बसंत एवं राधेश्याम के साथ प्रत्येक दिन मंदिर में नारियल खाने जाया करते थे। मंदिर के बाहर में इसके बाद में क्रमश: टीन शेड का विशाल कक्ष बनाकर नगर भर के बिखरे हुए मूर्तियों को एक-एक कर टीन शेड में सुरक्षित किया गया ।
अभी सभी मूर्तियां इसी मंदिर परिसर के संग्रहालय मे संरक्षित किया गया हैं। संरक्षित मूर्तियों में पहली पाषाण प्रतिमा इसवी पूर्व दूसरी शताब्दी की भगवान विष्णु की है। स्कंद माता, विष्णु, महामाया, कुबेर, हेरंब गणेश की मूर्ति, सूर्य , कलाकृतियों में गणेश, भगवान शंकर पार्वती आदि उल्लेखनीय है। बहुत सारी महत्वपूर्ण मूर्तियां अभी भी खुले आसमान के नीचे धूप तथा बरसात में धीरे-धीरे नष्ट हो रहे हैं। वर्तमान में मेले की व्यवस्था नगर पंचायत द्वारा कि जाती है आगामी 15 दिनों तक लोग परिवार सहित मेले में घुमने , खाने-पीने, सिनेमा देखने, झूला झूलने और खरीददारी करने का भरपूर आनंद उठाएंंगे।
भगवान सदाशिव के संबंध में पं. जगदीश मिश्रा के अनुसार -
सर्पेकंठ धारणा मस्तके चंद्र सुशोभितं ।
व्याघ्रस्य चर्म धारणं शिव शंकर त्रिलोचनं।।
अर्थात् गले में जिसने सर्प धारण किया है, मस्तक पर चंद्रमा सजा हुआ है और बाघ की खाल धारण करता है वह त्रिलोचन शिव शंकर हैं।