जशपुरनगर। कभी जशपुर में राज करने वाली कोरवा जनजाति अस्तित्व बचाने के लिए संघर्ष कर रही है। गरीबी, अशिक्षा और बेरोजगारी के दलदल में धंसी इस विशेष संरक्षित जनजाति के नाम पर राजनीति तो खुब हुई, लेकिन विकास के जिस मुकाम पर इन्हें पहुंचाने का दावा किया गया था, वह आज भी इनसे कोसो दूर है।
जशपुर जिले के बगीचा और मनोरा तहसील में इस जनजाति का प्रमुख आवास है। अल्प संख्या में कुनकुरी और पुरसाबहार तहसील में भी यह निवास करते हैं। यह विडंबना ही है कि खुड़िया रियासत से जुड़े कोरवाओं को सरकार ने पहाड़ी और दिहाड़ी कोरवा में विभाजित कर दिया।
इस विभाजन ने कोरवाओं की विकास की गति को तो प्रभावित किया ही, इनकी पहचान पर भी सवालिया निशान लगा दिया। दिहाड़ी कोरवाओं को न तो विशेष संरक्षित जनजाति का दर्जा मिल रहा है और न ही सरकारी योजनाओं का लाभ इन तक अपनी पहुंच पा रही है।
सरकार ने 1925 में हुए सेटलमेंट के तहत जमीन का मालिक तो इन्हें बना दिया, लेकिन गरीबी की वजह से अधिकांश कोरवा, जमीनों को बड़े किसान और साहूकारों के पास गिरवी रख कर या किराए में देकर अपने ही खेत में मजदूरी करने के लिए विवश है। पहाड़ी कोरवाओं के नाम पर हो रही सियासत ने इस जनजातियों को राजनीतिक रैलियों और आम सभाओं का शो पीस बना कर रख दिया है।
पाट क्षेत्र को खुड़िया दीवान के रूप में जाना जाता है। जनपद पंचायत बगीचा के अध्यक्ष प्रदीप नारायण के पूर्वज इस क्षेत्र के जमीदार हुआ करते थे। यह खुड़िया रियासत जशपुर रियासत का सबसे बड़ा जमींदारी हुआ करता था। प्रदेश में यह क्षेत्र पहाड़ी कोरवा जनजाति को राष्ट्रपति का दत्तक पुत्र कहा जाता है। यह सबसे बड़ा निवास क्षेत्र है। जशपुर के राजनीतिक परिदृश्य में कुमार दिलीप सिंह जूदेव के अभ्युदय के बाद पहाड़ी कोरवाओं का राजनीतिक महत्व व पहचान बढ़ी। स्व.जूदेव ने हमेशा अपने कार्यक्रम में कोरवाओं को आगे रखा।
पहाडी कोरवाओं के विकास के लिए अविभाजित मध्य प्रदेश के शासन काल में 1978-79 गठित पहाड़ी कोरवा एवं बिरहोर विकास अभिकरण इन दिनों बजट की कमी से जूझ रहा है। बजट न होने से अभिकरण की योजना सिर्फ जूता-मोजा, कृषि बीज, पौधा वितरण करने जैसे कार्यों तक सिमटा हुआ है। कोरवा और बिरहोर जनजाति को विकास की मुख्यधारा में लाने के लिए इस अभिकरण के पास ना तो कोई बड़ी योजना है और न ही बजट।
नईदुनिया को सूचना का अधिकार के तहत मिली जानकारी के मुताबिक अभिकरण ने वित्त वर्ष 2008-09 से 2017-18 तक 10 वर्षो में इन दोनों विशेष संरक्षित जनजातियों के विकास के लिए 90 लाख 1500 स्र्पये खर्च किए। विकास के लिए अलग अभिकरण गठित किए जाने के बाद भी पहाड़ी कोरवाओं की आर्थिक और सामाजिक जीवन में अपेक्षित परिवर्तन नहीं आ पाया है। अधिकांश परिवार गरीबी, बेरोजगारी और अशिक्षा से जूझ रहे हैं।
बुनियादी सुविधा से भी दूर पहाड़ी कोरवा बस्ती
रियासत गंवाने के बाद कोरवा जनजाति इन दिनों सियासत के झंझावत में फंसी हुई है। इससे इन्हें सुर्खियां तो खूब मिल रही है लेकिन पानी, बिजली, सड़क और शिक्षा जैसी बुनियादी सुविधाएं इनके पहुंच से कोसो दूर है। मनोरा तहसील के 12 और बगीचा विकास खंड के 81 कोरवा गांव में से अधिकांश गांवों में बुनियादी सुविधा गायब है।
अब खुड़िया जिला बनाने की उठने लगी मांग
रियासत और सियासत के बीच में फंसी कोरवा जनजाति अब अपने विकास और विशिष्ट पहचान को बरकरार रखने के लिए संघर्ष के रास्ते पर हेैं। सन्ना को विकासखंड का दर्जा दिए जाने में हो रही लेट लतीफी के बाद अब खुड़िया जिला बनाने की मांग जोर पकड़ने लगी है। इसे लेकर दो माह पूर्व रैली और आम सभा भी हुई। यह आंदोलन फिलहाल बगीचा तहसील तक सिमटी हुई है। लोकसभा चुनाव के नतीजे आंदोलन का भविष्य तय करने में अहम भूमिका निभाएगी।
आंकड़ों में पहाड़ी कोरवा
कुल जनसंख्या :14608
कुल परिवार : 4110
कुल गांव : 94
10 साल में खर्च रकम : 90 लाख