संतोष सिंह, जगदलपुर। Chhattishgarh News: अपनी स्थापना के सरकारी आयोजनों से बेखबर हमारा जगदलपुर 250 साल का हो गया है। जगतूगुड़ा के नाम से जाना जाने वाला गांव 1770 में काकतीय राजाओं की राजधानी बना। फिर अंग्रेजों ने इसे अपने प्रशासन के मुख्य केंद्र के रूप में स्थापित किया। आजादी के बाद बस्तर का प्रशासनिक केंद्र बना जगदलपुर आज संभाग व जिला मुख्यालय है। काकतीय वंश के 13वें शासक दलपत देव ने 1770 में अपनी राजधानी मधोता (बस्तर) से जगतूगुड़ा स्थानांतरित की और इसे जगदलपुर नाम दिया गया। 1770 में राजधानी स्थानांतरण का उल्लेख केदारनाथ ठाकुर की बस्तर भूषण, इतिहासकार हीरालाल शुक्ल के बस्तर का मुक्तिसंग्राम व अन्य ग्रंथों में मिलता है।
नामकरण की यही कहानी सर्वमान्य
राजधानी स्थानांतरण और शहर नामकरण की दिलचस्प कहानियां प्रचलित हैं। जगतूगुड़ा को राजधानी बनाने की कथा बस्तर के पहले ज्ञात इतिहासकार पं केदारनाथ ठाकुर की कृति बस्तर भूषण में मिलती है। इसके अनुसार एक दिन राजा दलपत देव अपने सहयोगियों के साथ इंद्रावती के इस पार शिकार खेलने आए थे। उनके पालतू कुत्ते खरगोश से डरकर आगे नहीं बढ़े। यह बात अपने दरबारियों को जब उन्होंने बताई तो इस जगह को वीरभूमि (योद्धाओं की भूमि) मानते इसे राजधानी बनाने का फैसला लिया गया। उस दौर में मराठों के आक्रमण का भी भय था और इसे भी राजधानी परिवर्तन की एक वजह माना जाता है। 1770 में जब काकतीय राज्य की राजधानी यहां स्थानांतरित की गई तब यह माहरा समुदाय का रहवास था और उसके मुखिया जगतू माहरा के नाम पर इसे जगतूगुड़ा के नाम से जाना जाता था। उस समय यहां करीब 50 झोपड़ियां थीं। इंद्रावती नदी के किनारे आज के प्रवीर वार्ड के पनारापारा के आसपास यह मौजूद थीं। बस्तर के पूर्व प्रशासक डब्ल्यूजी ग्रिग्सन ने भी अपनी किताब में इसका उल्लेख किया है। जगतू के नाम से जग और दलपत देव के नाम से दल को लेकर इसे जगदलपुर नाम दिया गया। इसके नामकरण की यही कहानी सर्वमान्य है।
काकतीय राजाओं को बसने देने की दी थी अनुमति
एक अन्य मत के अनुसार वारंगल के राजा गणपति के मंत्री पुत्र जगदलमुग्दी ने जगदलपुर की स्थापना की थी लेकिन बस्तर के अधिकांश लोग व इतिहासकार यह कहकर इस मत को खारिज करते हैं कि गणपति के समय यहां नागवंशी राजाओं का शासन था और तब उनकी राजधानी चक्रकोट थी। ऐसा उल्लेख मिलता है कि अपनी कुलदेवी से अनुमति लेकर माहरा समुदाय ने इस जगह काकतीय राजाओं को बसने देने की अनुमति दी थी।
जगदलपुर : सामान्य जानकारी | |
स्थापना | 1770 |
संस्थापक | महाराजा दलपत देव |
क्षेत्रफल | 34.77 वर्ग किमी |
समुद्र सतह से ऊंचाई | 555 मीटर |
जनसंख्या | 125463 |
वार्डों की संख्या | 48 |
1862 में थीं 400 झोपड़ियां
जगदलपुर के शुरूआती दौर की ज्यादा जानकारी उपलब्ध नहीं है। जगदलपुर की स्थापना के 92 साल बाद सिरोंचा के डिप्टी कमिश्नर सी ग्लासफर्ड की 1862 की रिपोर्ट उस दौर का एकमात्र उपलब्ध दस्तावेज है, जिसमें जगदलपुर के बारे में जानकारी मिलती है। इसके मुताबिक तब जगदलपुर में 400 झोपड़ियां और राजमहल एक बड़ी झोपड़ी के रूप में विद्यमान थे। जगदलपुर विकास योजना 2001 में इसे आधार बनाकर लिखा गया है कि यहां मिट्टी के दीवार और घास-फूस के छप्पर थे। राजा का अपना निवास स्थान भी कोई खास अच्छा नहीं था। आकार के लिहाज से ही वह अन्य मकानों से बड़ा था। उसका निर्माण भी मिट्टी और ईंटों की दीवार तथा घास-फूस के छप्पर से हुआ था।
लंदन के नमूने पर बसाया गया
1770 से 1947 तक राजमहल प्रशासनिक गतिविधियों का केंद्र था इसलिए उसे केंद्र बिंदु मानकर यहां की बसाहट शुरू की गई थी। जगदलपुर को नियोजित आकार देने की परिकल्पना महाराजा रूद्र प्रतापदेव के दीवान रायबहादुर बैजनाथ पंडा (1904-1910) ने की थी। पंडा ने जलापूर्ति, जल निकासी, सड़कों के निश्चित अंतराल में क्रासिंग समेत अन्य आवश्यक नागरिक सुविधाओं की उपलब्धता सुनिश्चित करने की कल्पना की थी। लंदन की प्रतिकृति पर इसे बसाने का खाका खींचा गया था लेकिन इस ड्रीम प्रोजेक्ट को वे स्वयं आकार नहीं दे पाए थे। 1910 के भूमकाल विद्रोह के बाद उन्हें हटा दिया गया था।
अंग्रेज प्रशासक कर्नल जेम्स ने विशेष आपरेशन चलाकर इसे किया था साकार
अंग्रेज प्रशासक कर्नल जेम्स ने विशेष आपरेशन चलाकर इसे साकार किया था। सड़कों को चौड़ा किया गया और इसके दोनों किनारों पर ड्रेनेज के लिए पर्याप्त जगह छोड़ी गई। संकरी गलियों को खत्म कर विस्थापितों को खुली जगहों पर बसाया गया। उस दौर में जातियों के अनुसार मोहल्ले और पारा-टोला बसे। तदनुसार उनका नाम भी वैसा ही पड़ा। पनारापारा, ब्राह्मणपारा, हिकमी पारा, घड़वा पारा, राउतपारा, कुम्हारपारा, कोष्टापारा जैसे जातिसूचक क्षेत्रीय नाम आज भी प्रचलन में हैं जबकि अब इनका स्थान वार्डों ने ले लिया है। आज के प्रताप देव व सदर वार्ड का हिस्सा रियासतकाल में परदेशी पारा के नाम से जाना जाता था। आज जिसे भैरमदेव वार्ड के नाम से जाना जाता है, वहां अरण्यक ब्राह्मण परिवार बसाए गए थे।
ऐतिहासिक बदलावों का रहा साक्षी
250 साल की यात्रा में जगदलपुर अनेक ऐतिहासिक घटनाओं व बदलावों का साक्षी रहा है। 1770 से 1947 तक रियासती दौर में जगदलपुर से आठ काकतीय शासकों ने राज किया। इस दौरान एक दर्जन से ज्यादा दीवानों की हुकूमत रही। इनमें से कई नामदार तो कुछ कामदार साबित हुए। राजाओं और दीवानों की रूचि राजकाज को लेकर अलग-अलग रही। इनके किस्से लेखों और किताबों में दर्ज हैं। रियासतकाल के दरबारी षड़यंत्रों, विद्रोहों से लेकर प्रशासनिक फैसलों का केंद्र जगदलपुर रहा। राजस्व, न्याय, वन, शिक्षा आदि से जुड़े जो फरमान यहां से जारी किए गए, वे इस आदिवासी अंचल की दशा-दिशा बदलने वाले साबित हुए। 1876 के मुरिया विद्रोह के बाद लागू मुरिया दरबार की व्यवस्था आज भी दशहरा में प्रचलित है।
राजशाही से लोकशाही की यात्रा में अनेक पड़ाव
1910 के भूमकाल विद्रोह के बाद के दौर में बागियों को प्रताड़ित करने व सजा देने की अंग्रेजी हुकूमत का गवाह गोल बाजार है। इसे तब गेयर बाजार भी कहा जाता था। 25 मार्च 1966 को बस्तर के 20 वें शासक महाराजा प्रवीरचंद्र भंजदेव की राजमहल गोलीकांड में हत्या हो गई थी। राजशाही से लोकशाही की ढ़ाई सौ साल की जगदलपुर की यात्रा में अनेक पड़ाव आए। रियासतकाल के मंदिर, महल व अन्य स्मारक आज भी नजर आते हैं। इनमें से कुछ समय के साथ नष्ट हो गए तो कुछ अतिक्रमित। राजा रूद्र प्रतापदेव के शासनकाल में अनेक भवनों का निर्माण किया गया था। उस दौर के विश्रामगृह, जेल, पुराने कोर्ट भवन समेत अधिकारियों के आवास आदि आज भी मौजूद हैं। एक जनवरी 1948 को भारतीय संघ में बस्तर रियासत का विलीनीकरण किया गया और जगदलपुर अविभाजित बस्तर जिला का मुख्यालय बना।
उत्तर में चारामा से लेकर दक्षिण में कोंटा तक थी सीमा
कभी बस्तर के कलक्टरों को जगदलपुर से उत्तर में चारामा से लेकर दक्षिण में कोंटा तक का प्रशासन देखना पड़ता था। पहले बस्तर रायपुर संभाग के अधीन था। 1982 में बस्तर को संभाग का दर्जा मिला और जगदलपुर कमिश्नरी मुख्यालय भी बन गया। यह आज जिला व संभाग मुख्यालय है। लोकशाही के नमूने के तौर पर पहली बड़ी बिल्डिंग कलेक्टोरेट है जिसे 1962 में बनाया गया था। कमिश्नरी कार्यालय, कोर्ट, जिला पंचायत भवन, नगर निगम भवन, नया बस स्टैंड, बीएसएनएल कार्यालय भवन समेत अनेक बड़ी बिल्डिंगें पिछले तीन-चार दशक में बनी हैं।
इन शासकों की राजधानी रहा जगदलपुर | |
दलपत देव | (1731 - 1774) |
दरियाव देव | (1777 - 1800) |
महिपाल देव | (1800 - 1842) |
भूपाल देव | (1842 - 1853) |
भैरम देव | (1853 - 1891) |
रूद्र प्रताप देव | (1891 - 1921) |
महारानी प्रफुल्ल कुमारी देवी | (1921 - 1936) |
प्रवीरचंद्र भंजदेव | (1936-1948) |
चौराहों के शहर के रूप में प्रसिद्धि
जगदलपुर को चौक-चौराहों का शहर तो कहा जाता है लेकिन यहां कितने चौराहे हैं, इसका लिखित विवरण न तो लोक निर्माण विभाग और न ही नगर निगम के पास मौजूद है। छत्तीसगढ़ राज्य के गठन के पहले भारतीय मानव विज्ञान सर्वेक्षण के एक दल ने जगदलपुर का अध्ययन किया था। जगदलपुर : ए टाउन इन ए ट्राइबल सेटिंग के नाम से प्रकाशित इस रिपोर्ट में भी चौराहों का कोई लिखित रिकार्ड मौजूद न होने का उल्लेख किया गया है।
तालाबों की भी यही स्थिति
आज रियासत काल के दलपत सागर व गंगामुंडा का ही वजूद है। केवरामुंडा, नयामुंडा जैसे दर्जनों छोटे-बड़े तालाब व पोखर अस्तित्व खो चुके हैं। जगदलपुर अपनी स्थापना के समय से ही बस्तर अंचल का सामाजिक- आर्थिक गतिविधियों का केंद्र रहा है। गोल बाजार व इतवारी बाजार तब मुख्य बाजार थे। करीब 25 साल पहले संजय बाजार स्थापित किया गया, जो आज संभाग का सबसे बड़ा बाजार है।
जनसंख्या : हजार से लाख तक का सफर | |
वर्ष | जनसंख्या |
1901 | 4,762 |
1911 | 6,068 |
1921 | 7,313 |
1931 | 10,128 |
1941 | 11,304 |
1951 | 13,793 |
1961 | 20,412 |
1971 | 31,344 |
1981 | 51,286 |
1991 | 66,154 |
2001 | 73,669 |
2011 | 1,25,463 |
आबादी बढ़ने के साथ सूरत भी बदली
रियासत काल में जब इसे नियोजित किया गया तब जनसंख्या बेहद कम थी। कालांतर में आबादी बढ़ने के साथ शहर की सूरत भी बदल गई। 1948 में भारतीय संघ में रियासत के विलीन होने के बाद जब जगदलपुर को जिला मुख्यालय का दर्जा मिला तो यहां सरकारी कार्यालयों व आवासों की संख्या बढ़ी। दंडकारण्य परियोजना की स्थापना से यहां दफ्तरों के साथ आबादी भी बढ़ी। स्वतंत्रता के बाद के सात दशक में शहर का विस्तार हुआ लेकिन इसकी बसाहट गड़बड़ा गई है।
आज शहर में निवास करती हैं सैकड़ों जातियां
नियोजित विकास के चिन्ह हालांकि अब भी शहर मध्य के सदर, सुभाष, इंदिरा, प्रतापदेव, बालाजी, मोतीलाल नेहरू जैसे एक दर्जन वार्डों में नजर आते हैं। यहां चौराहों-तिराहों के साथ सड़क, नालियों की उन्न्त व्यवस्था दिखती है। प्रशासनिक व आर्थिक गतिविधियों का केंद्र बनने से जगदलपुर में दशकवार आबादी का आव्रजन भी तेज हुआ है। आज शहर में सैकड़ों जातियां निवास करती हैं। इनमें से कुछ मूल बस्तरिया हैं। कई का आगमन रियासत काल में तो कई का लोकतंत्र के दौर में हुआ है। जनसंख्या में बढ़ोत्तरी, आउटर का बेतरतीब विकास, मास्टर प्लान की अनदेखी जैसी वजहों ने यातायात व्यवस्था के साथ नागरिक सुविधाओं पर भी दबाव डाला है।
टाउन कमेटी से नगर निगम तक का सफर
आजादी के पहले शहर में पेयजल, सड़क, प्रकाश, स्वास्थ्य, सफाई जैसी सुविधाओं के लिए एक परिषद होती थी। यही परिषद कालांतर में म्युनिसपेल्टी में परिणित हुई। स्वतंत्रता के बाद बस्तर को भारत संघ में शामिल किया गया। 26 जून 1948 को अधिसूचना जारी कर जगदलपुर नगरपालिका परिषद के गठन की घोषणा की गई। इसके द्वारा नगरपालिका सीमा को कुल 13 वार्डों में विभाजित किया गया था। तब टाउन कमेटी मुख्य परिषद होती थी। इसके पहले अध्यक्ष कुंवर गणेश सिंह थे। 25 सितंबर 1954 को इसकी पहली बैठक हुई थी। 1964-65 में वार्डों की संख्या 16 हो गई। 1973 में छह नए वार्ड महारानी, नेताजी सुभाष, संतोषी, राजेंद्र नगर, जवाहर नगर व शांतिनगर का गठन किए जाने से वार्डों की संख्या 22 हो गई।
1994 में 29 वार्डों को किया गया पुनर्गठित
1986 में सात नए वार्ड शिव मंदिर, भगत सिंह, सिविल लाइन, बालाजी, मोतीलाल नेहरू, इंदिरा व भैरमदेव बनाए गए और वार्डों की संख्या 29 हो गई। इन पुराने 29 वार्डों को 1994 में पुनर्गठित किया गया। इसी समय अंबेडकर व विवेकानंद वार्ड अस्तित्व में आए जिससे वार्ड संख्या 31 हो गई। एक नवंबर 2000 को छत्तीसगढ़ राज्य का गठन हुआ। 2001 में यहां की जनसंख्या 73669 थी। ऐसे में फ्रेजरपुर, धरमपुरा, कंगोली, हाटकचोरा को इसमें शामिल कर इसकी जनसंख्या को 103123 तक पहुंचाया गया। 30 अक्टूबर 2002 को राजपत्र में अधिसूचना प्रकाशित कर जगदलपुर नगर निगम का गठन किया गया। पहले नगर निगम में 40 वार्ड थे। अब नगर निगम वार्डों की संख्या 48 है।