पंकज दुबे
रायपुर। नईदुनिया
प्रदेश समेत देश भर में चने की खेती बड़ी तादाद में की जाती है। चना भारत की सबसे महत्वपूर्ण दलहनी फसल है, इसलिए इसे दालों का राजा कहा जाता है। दलहनी फसल होने के कारण इसकी पैदावार खासकर उत्तरप्रदेश, कर्नाटक, मध्यप्रदेश, राजस्थान समेत मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़ में होती है। लेकिन छत्तीसगढ़ प्रांत के मैदानी जिलों में चने की खेती असिंचित अवस्था में की जाती है। भारत में चने की खेती 7.54 मिलियन हेक्टेयर क्षेत्र में की जाती है, जिससे 7.62 क्विं./हे. के औसत मान से 5.75 मिलियन टन उपज प्राप्त होती है। चना एक शुष्क एवं ठंडे जलवायु की फसल है, जिसे रबी मौसम में उगाया जाता है। चने की खेती के लिए मध्यम वर्षा (60-90 सेमी वार्षिक वर्षा) और सर्दी वाले क्षेत्र सर्वाधिक उपयुक्त है। फसल में फूल आने के बाद वर्षा होना हानिकारक होता है, क्योंकि वर्षा के कारण फूल के परागकण एक-दूसरे से चिपक जाते हैं, जिससे बीज नहीं बनते हैं, इसलिए धान कटाई के बाद दिसंबर के प्रथम सप्ताह तक चने की बोआई की जा सकती है, जिसके लिए जेजी 75, जेजी 315, भारती, विजय, अन्नागिरी आदि उपयुक्त किस्में हैं।
शुष्क एवं ठंडे जलवायु की फसल
इसकी खेती के लिए 24-300 सेल्सियस तापमान उपयुक्त माना जाता है। फसल के दाना बनते समय 30 सेल्सियस से कम या 300 सेल्सियस से अधिक तापक्रम हानिकारक रहता है, जिसमें पोषक मान की दृष्टि से चने के 100 ग्राम दाने में औसतन 11 ग्राम पानी, 21.1 ग्राम प्रोटीन, 4.5 ग्रा. वसा, 61.5 ग्रा. कार्बोहाइड्रेट, 149 मिग्रा. कैल्सियम, 7.2 मिग्रा. लोहा, 0.14 मिग्रा. राइबोफ्लेविन तथा 2.3 मिग्रा. नियासिन पाया जाता है। वहीं चने का प्रयोग दाल एवं रोटी के लिए किया जाता है। चने को पीसकर बेसन तैयार किया जाता है, जिससे विविध व्यंजन बनाये जाते हैं। चने की हरी पत्तियां भाजी बनाने, हरा तथा सूखा दाना सब्जी व दाल बनाने में प्रयुक्त होता है। दाल से अलग किया हुआ छिलका और भूसा भी पशु चाव से खाते हैं।
पैदावार के लिए भूमि का चुनाव
सामान्य तौर पर चने की खेती हल्की से भारी भूमि में की जाती है, किंतु अधिक जल धारण क्षमता एवं उचित जल निकास वाली भूमि सर्वोत्तम रहती है। छत्तीसगढ़ की डोरसा, कन्हार भूमि इसकी खेती हेतु उपयुक्त है। मृदा का पी-एच मान 6-7.5 उपयुक्त रहता है। चने की खेती के लिए अधिक उपजाऊ भूमि उपयुक्त नहीं होती, क्योंकि उसमें फसल की बढ़ वार अधिक हो जाती है, जिससे फूल एवं फलियां कम बनती हैं।
मिट्टी का बारीक होना आवश्यक नहीं
असिंचित अवस्था में मानसून शुरू होने से पूर्व गहरी जुताई करने से रबी के लिए भी नमी संरक्षण होता है। एक जुताई मिट्टी पलटने वाले हल तथा दो जुताई देसी हल से की जाती है। फिर पाटा चलाकर खेत को समतल कर लिया जाता है। दीमक प्रभावित खेतों में क्लोरपायरीफास मिलाना चाहिए। इससे कटुआ कीट पर भी नियंत्रण होता है। चना की खेती के लिए मिट्टी का बारीक होना आवश्यक नहीं है, बल्कि ढेलादार खेत ही चने की उत्तम फसल के लिए अच्छा समझा जाता है । खरीफ फसल कटने के बाद नमी की पर्याप्त मात्रा होने पर एक जुताई मिट्टी पलटने वाले हल से तथा दो जुताइयां देसी हल या ट्रैक्टर से की जाती है और फिर पाटा चलाकर खेत समतल कर लिया जाता है। दीमक प्रभावित खेतों में क्लोरपायरीफास 1.5 प्रतिशत चूर्ण 20 किलो प्रति हेक्टर के हिसाब से जुताई के दौरान मिट्टी में मिलना चाहिए। इससे कटुआ कीट पर भी नियंत्रण होता है।
चने की उन्नत फसलें
देसी चने का रंग पीले से गहरा कत्थई या काले तथा दाने का आकार छोटा होता है। काबूली चने का रंग प्रायः सफेद होता है। इसका पौधा देसीी चने से लम्बा होता है। इंदिरा गांधी कृषि विश्वविद्यालय द्वारा विकसित वैभव यह किस्म सम्पूर्ण छत्तीसगढ़ के लिए उपयुक्त है। यह किस्म 110 -115 दिन में पकती है। दाना बड़ा, झुर्रीदार तथा कत्थई रंग का होता है। उतेरा के लिए भी यह उपयुक्त है। अधिक तापमान, सूखा और उठका निरोधक किस्म है, जो सामान्यतौर पर 15 क्विंटल तथा देर से बोने पर 13 क्विंटल प्रति हेक्टेयर उपज देती है। इसी तरह से जेजी-74 यह किस्म 110-115 दिन में तैयार हो जाती है। इसकी पैदावार लगभग 15 से 20 क्विंटल प्रति हेक्टेयर होती है। उज्जौन 21 इसका बीज खुरदरा होता है। यह जल्दी पकने वाली जाति है, जो 115 दिन में तैयार हो जाती है। उपज 8 से 10 क्विंटल प्रति हेक्टेयर होती है। दाने में 18 प्रतिशत प्रोटीन होती है। राधे, जेजी 315, जेजी 11, बीजी-391, जेएकेआई-9218, विशाल चने की यह सर्वगुण सम्पन्ना किस्म है, जो कि 110 -115 दिन में तैयार हो जाती है। इसका दाना पीला, बड़ा एवं उच्च गुणवत्ता वाला होता है । दानों से सर्वाधिक (80%) दाल प्राप्त होती है। अतः बाजार भाव अधिक मिलता है। इसकी उपज क्षमता 35क्विंटल प्रति हेक्टेयर होती है।
बोनी का समय व विधि
चने की बुआई समय पर करने से फसल की वृद्घि अच्छी होती है, साथ ही कीट एवं बीमारियों से फसल की रक्षा होती है, फलस्वरूप उपज अच्छी मिलती है । अनुसंधानों से ज्ञात होता है कि 20 से 30 नंवबर तक चने की बुआई करने से सर्वाधित उपज प्राप्त होती है। असिंचित क्षेत्रों में अगेती बुआई सितंबर के अंतिम सप्ताह से अक्टूबर के तृतीय सप्ताह तक करनी चाहिए। सामान्य तौर पर अक्टूबर अंत से नवंबर का पहला पखवाड़ा बोआई के लिए सर्वोत्तम रहता है। सिंचित क्षेत्रों में पछेती बोआई दिसंबर के तीसरे सप्ताह तक संपन्ना कर लेनी चाहिए। उतेरा पद्घति से बोने हेतु अक्टूबर का दूसरा पखवाड़ा उपयुक्त पाया गया है। आमतौर पर चने की खेती असिंचित अवस्था में की जाती है। चने की फसल के लिए कम जल की आवश्यकता होती है। चने में जल उपलब्धता के आधार पहली सिंचाई फूल आने के पूर्व अर्थात बोने के 45 दिन बाद एवं दूसरी सिंचाई दाना भरने की अवस्था पर अर्थात बोने के 75 दिन बाद करना चाहिए।
कीट नियंत्रण
चने की फसल को कटुआ अत्यधिक नुकसान पहुंचाता है। इसकी रोकथाम के लिए 20 कि.ग्रा./हे. की दर से क्लोरापायरीफॉस भूमि में मिलाना चाहिए। फली छेदक रोग का प्रकोप फली में दाना बनते समय अधिक होता है। नियंत्रण नहीं करने पर उपज में 75 प्रतिशत कमी आ जाती है। इसकी रोकथाम के लिए मोनाक्रोटोफॉस 40 ई.सी 1 लीटर दर से 600-800 ली. पानी में घोलकर फली आते समय फसल पर छिड़काव करना चाहिए।
उकठा रोग नियंत्रण
-उकठा रोग निरोधक किस्मों का प्रयोग करना चाहिए।
-प्रभावित क्षेत्रो में फल चक्र अपनाना लाभकर होता है।
-प्रभावित पोधा को उखाड़कर नष्ट करना अथवा गढ्ढे में दबा देना चाहिए।
-बीज को कार्बेन्डाजिम 2.5 ग्राम या ट्राइकोडर्मा विरडी 4 ग्राम/किलो बीज की दर से उपचारित कर बोना चाहिए।