जीने की कला पर दिव्य सत्संग में ललितप्रभजी बोले- जिंदगी न बन जाए बला, सीखें जीने की कला
अगर आदमी जीवन जीने की कला सीख लेता है तो उसका घर ही स्वर्ग बन जाता है। उसकी जिंदगी जन्नत बन जाती है।
By Ashish Kumar Gupta
Edited By: Ashish Kumar Gupta
Publish Date: Fri, 15 Jul 2022 09:12:24 AM (IST)
Updated Date: Fri, 15 Jul 2022 09:12:24 AM (IST)

रायपुर (नईदुनिया प्रतिनिधि)। राजधानी रायपुर के आउटडोर स्टेडियम बूढ़ापारा में दिव्य सत्संग के चतुर्थ प्रभात में महोपाध्याय श्रीललितप्रभ सागरजी महाराज ने कैसे बोलें कि सब हमें चाहें विषय पर श्रद्धालुओं को जीने की कला का मंत्र दिया। उन्होंने कहा कि जिंदगी न बन जाए बला, उससे पहले सीख लें जीवन जीने की कला। अगर आदमी जीवन जीने की कला सीख लेता है तो उसका घर ही स्वर्ग बन जाता है। उसकी जिंदगी जन्नत बन जाती है, उसका मन-मस्तिष्क हमेशा आनंद से भरा रहता है, वह जहां रहता है, जिस मुकाम पर रहता है, उसकी जिंदगी हर पल-हर क्षण प्रेम, आनंद, शांति, माधुर्य और विकास से भरी रहती है।
उन्होंने कहा कि जब भी बोलें शिष्ट-शालीन, मिष्ठ- मीठा और ईष्ट यानी प्रियकर बोलें। हमारी वाणी हमारे व्यक्तित्व की पहचान होती है। आदमी की कुलीनता उसकी जमीन-जायजाद, धन-दौलत से नहीं, उसकी शालीनता से पहचानी जाती है। क्योंकि दुनिया का नियम है- जैसा तुम देते हो, लौटकर वही हर चीज तुम्हारे पास आती है। ये दुनिया एक ईको सिस्टम की तरह है, हम जैसा बोेलेंगे वापस वैसा ही हमें सुनने को मिलेगा। यदि तुम चाहते हो कि दुनियावाले तुम्हारा सम्मान करे तो जीवन में शिष्ट, मिष्ठ व ईष्ट वाणी के मंत्र को अपना लो।
जीवन में प्रेम और आनंद जरूरी
उन्होंने कहा कि जिंदगी को स्वर्गनुमा बनाने के लिए कोई बड़ी कोठी की जरूरत नहीं होती, जिंदगी को प्रेम और आनंद से भरने के लिए महंगे गहनों-आभूषणों की जरूरत नहीं होती, जिंदगी में माधुर्य घोलने के लिए घर में महंगे फर्निचरों की जरूरत नहीं होती। जिंदगी को स्वर्गनुमा बनाने के लिए जिंदगी जीने की कला आनी चाहिए। जीने की कला का पहला संसाधन है, हमारी वाणी। क्योंकि यही वाणी है जो हमारे संबंधों जोड़ती है और हमारे संबंधों को तोड़ती भी है। हमारे पूरे शरीर में अगर सबसे अच्छा अंग है तो वह हमारी जबान है। यही जबान है जो गीत गाती है, भजन गाती है, रिश्तों को बनाती है। यही जबान है जो प्रेम, माधुर्य और मिठास को घोलती है।