ललित मानिकपुरी, रायपुर। राजधानी रायपुर से करीब 80 किमी दूर प्रदेश के प्रमुख पर्यटन स्थलों में शुमार तुरतुरिया के पूस-पुन्नी मेले में हजारों बकरों की बलि चढ़ गई।
भगवान राम के पुत्र लव और कुश की जन्म स्थली तथा महर्षि वाल्मीकि की तपोभूमि के रूप में विख्यात यह स्थल आज बड़े पैमाने पर बकरों की बलि स्थल के रूप में जाना जाने लगा है।
लगता है तीन दिन का मेला
बार नवापारा अभयारण्य से लगा यह स्थल जंगल, नदी, झरना, गुफाओं और पहाड़ियों के प्राकृतिक सौंदर्य से परिपूर्ण एक रमणीय स्थल है।
पारंपरिक रूप से यहां पौष पूर्णिमा पर छेरछेरा पर्व के दिन से तीन दिन का मेला लगता है।
देखता रहा प्रशासन
तीनों ही दिन बकरों की बलि चढ़ाई जाती है, एक-दो या दस-बीस नहीं, बल्कि हजारों की संख्या में बकरे तुरतुरिया माता के मंदिर में बलि चढ़ाए जाते हैं।
इस बार मेले में दो लाख से भी अधिक लोग पहुंचे और करीब छह हजार बकरों के बलि चढ़ाई गई। प्रशासन सब कुछ बस देखता रहा।
लेकर आते हैं बलि का बकरा
यहां आने वाले हजारों परिवार अपने साथ बलि का बकरा लेकर आते हैं और मंदिर वाली पहाड़ी के ऊपर से नीचे तक पूरा स्थल बकरा-भात के विशाल भंडारा के रूप में तब्दील हो जाता है।
जिधर देखो, उधर चूल्हे जल रहे होते हैं और बड़े-बड़े बर्तनों में भोजन पक रहे होते हैं।
घर लेकर जाना वर्जित
हजारों की संख्या में पहुंचे हर उम्र वर्ग के लोग छककर बकरा-भात खाते हैं, यह बकरा-भात ही यहां का मुख्य प्रसाद होता है। इस प्रसाद को घर ले जाना वर्जित है।
खाने से जो बच जाता है, उसे यहां नदी में विसर्जित कर दिया जाता है। इससे सड़ांध फैलती है।
मंदिर के पीछे बलि देने का स्थान
मेले में लोगों ने जो बताया, उसके अनुसार तुरतुरिया माता आदिवासी बहुल इस क्षेत्र के लोगों की प्रमुख आराध्य देवी हैं।
लोग उनसे मन्नत मांगते हैं और मन्नत पूरी होने पर मेले में परिवार सहित आकर बकरे की बलि देते हैं। बलि देने का कार्य पहाड़ी की चोटी पर स्थित तुरतुरिया माता के मंदिर के बिलकुल पीछे होता है।
सिर बोरियों में भर लेते हैं
लोगों की भीड़ के बीच यह कार्य खुलेआम होता है, जहां बलि देने वाले धारदार तलवार लेकर खड़े होते हैं।
बकरों के सिर एक बोरियों में डालते जाते हैं और रक्त बहते धड़ को पकड़कर बलि चढ़ाने वाले परिवार के लोग नीचे उतरते हैं।
उसी रास्ते से जिस रास्ते दर्शनार्थियों का रेला लगा होता है। यह क्रम चलता रहता है।