
रायपुर। बस्तर के आंचलिक क्षेत्र के जंगलों में पैदा हो रहे तिखुर की मांग प्रदेशभर के अलावा मुंबई, नागपुर, झारखंड में होने लगी है। वहीं किसान भी तिखुर की पैदावार को लेकर जागरूक हो गए हैं। जबकि कुछ वर्ष पहले तिखुर सिर्फ जंगलों में पाया जाता था।
जिससे इसकी बहुत सी खूबियों के बारे में किसान अनजान रहे, लेकिन जगदलपुर के कृषि कॉलेज और अनुसंधान की टीम द्वारा किसानों को उत्पादन व प्रसंस्करण में प्रशिक्षित करने के बाद जंगल से तिखुर खेत तक पहुंच गया।
अब जिले के लगभग 307 किसान 50 एकड़ क्षेत्र में इसकी फसल ले रहे हैं। अखिल भारतीय सम्यविक कंद फसल अनुसंधान परियोजना प्रभारी डॉ. देव शंकर ने बताया कि तिखुर (कुरकुमा अंगेस्टीफोलिया) हल्दी की जाति का एक पौधा है।
इसकी जड़ का सार सफेद चूर्ण के रुप में होता है। दवा उद्योगों में भी इनकी अच्छी मांग है। इनसे मिलने वाले स्टार्च से कैप्सूल का आवरण तैयार होता है। स्टार्च पानी में घुलनशील होता है और इसका स्वास्थ्य पर विपरीत असर नहीं पड़ता है।
किसानों के लिए यह नकदी फसल
तिखुर की उपयोगिता को देखते हुए बस्तर के किसानों को सबसे पहले प्रसंस्करण की समस्या को सरल किया गया। इससे प्रसंस्करण में बेहतर क्वालिटी के साथ किसानों को परेशान से राहत मिली। जिससे मारेंगा आदि के क्षेत्रों में लगभग 307 किसानों ने सामूहिक रूप से 50 एकड़ में तिखुर की बुआई की है।
कॉलेज ऑफ एग्रीकल्चर एडं रिसर्च जगदलपुर के डीन डॉ. एससी मुखर्जी ने बताया कि योजना के तहत कृषि विवि के कुलपति डॉ. एसके पाटील ने तिखुर के बेहतर उत्पादन व प्रसंस्करण के लिए किसान को हर संभव सहयोग दिया जा रहा है। इसके बाद किसानों के अंदर भी आत्मविश्वास जागा। इसके अलावा देखा जाय तो किसानों के लिए यह नकदी फसल है।
व्यवसायिक खेती के लिए कर रहे जागरूक
एक किलो प्रकंद के प्रसंस्करण से 150-200 ग्राम स्टार्च प्राप्त होता है। डॉ. देव शंकर ने बताया कि व्यवसायिक खेती के बारे में किसानों को जागरूक किया जा रहा है। प्रशिक्षण के दौरान किसानों को बताया गया कि इसकी बुआई 15 मार्च से 10 अप्रैल तक होता है।
फसल के लिए बलुई मध्यम दोमट और जल निकासी वाली भूमि उत्तम होती है। उष्ण तथा समशीतोष्ण जलवायु इस पौधें के लिए बेहतर होता है। यह पौधा आंशिक छायादार स्थान में सरलता से उगाया जा सकता है। वैसे खुले स्थानों में यह 4 से 40 सेंटीग्रेड तापमान सहन कर सकता है। खेत को अच्छी तरह से तैयार कर बीज डाला जाता है। लाइन टू लाइन बीज डालने से पैदावार अच्छी होती है।
ढाई क्वींटल तक पावडर
अनुसंधान के माध्यम से किसानों को तिखुर पाउडर मशीन से परिचय कराया गया। जिससे एक दिन में लगभग ढाई से तीन क्वींटल तिखुर कंद से पावडर निकाला जा सकता है। जबकि पारंपरीक पद्घति से एक आदमी एक दिन में सिर्फ 20 से 25 किलों तिखुर कंद से चर्नर विधि या खुरदरे पत्थर के पीछे रगड़कर पावडर निकाला था। आधुनिक मशीन से किसानों को फिलहाल इसका इस्तेमाल दवाओं को संरक्षित करने के लिए फिलर के रूप में भी होता है।
तिखुर की खेती को लेकर अनुसंधान केंद्र द्वारा लगातार प्रशिक्षण दिया जा रहा है। खेती को लेकर किसान भी जागरूक हो गए हैं। इससे जंगल में पैदा होने वाले बहुमूल्य कंद की अब खेती होने लगी है। जो किसानों के लिए बड़ी उपलब्धि है। - डॉ. एससी मुखर्जी, डीन, कॉलेज ऑफ एग्रीकल्चर एडं रिसर्च सेंटर जगदलपुर