By Kadir Khan
Edited By: Kadir Khan
Publish Date: Tue, 18 Jan 2022 11:05:00 AM (IST)
Updated Date: Tue, 18 Jan 2022 11:05:28 AM (IST)
रायपुर (नईदुनिया प्रतिनिधि)। कथक नृत्य के सिरमौर पं.बिरजू महाराज की अब केवल यादें शेष रह गईं हैं। राजधानीवासी वह दिन कभी नहीं भूल सकते जब 16 दिसंबर 2016 को वे कालीबाड़ी स्थित कमलादेवी संगीत महाविद्यालय में कथक नृत्य की प्रस्तुति देने आए थे। मंच पर जब उन्होंने घुंघरू और तबले की जुगलबंदी की थी तो नृत्य-संगीत के रसिक उनकी प्रस्तुति देखकर मंत्रमुग्ध हो गए थे।
कमला देवी महाविद्यालय के संगीत शिक्षक दीपक बेड़ेकर बताते हैं कि छत्तीसगढ़ के प्रसिद्ध कलाकार शेखर सेन ने पं.बिरजू महाराज को भातखंडे ललितकला शिक्षा समिति द्वारा आयोजित डॉ.अरूण कुमार स्मृति समारोह के लिए आमंत्रित किया था। पं.बिरजू महाराज का नृत्य देखने के लिए कड़कड़ाती ठंड में भी दर्शक अपनी जगह से नहीं हिले, कि कहीं भीड़ के कारण उनकी सीट न छीन जाए।
मंच पर आते ही बिरजू महाराज ने 'बांसुरिया ऐसी बजा घनश्याम..' की ताल पर नृत्य किया था। उन्होंने घुंघरू और तबले की जुगलबंदी की प्रस्तुति दी थी। घुंघरू को नायिका और तबले को नायक की संज्ञा देते हुए उन्होंने अपनी प्रस्तुति में दर्शाया था कि किस तरह नायिका बनी घुंघरू के पीछे नायक बना तबला पीछा करता है और घुंघरू उसे छकाती है।
पांच साल पहले लखनऊ घराने के पं.बिरजू महाराज जब रायपुर आए थे तब नईदुनिया से विशेष बातचीत में बताया था कि 'जैसे-जैसे दौर बदल रहा है, वैसे-वैसे गुरु और शिष्य की परंपरा में भी बदलाव आ रहा है। अब शिष्य अपने गुरु से महज संगीत की शिक्षा लेते हैं, वे व्यवहारिक ज्ञान नहीं लेते। एक समय था, जब शिष्य 24 घंटे अपने गुरु से शिक्षा लेने के लिए लालायित रहता था। पता नहीं कब गुरु की जुबां से कौन से लफ्ज निकल जाएं, जो शिष्य के जीवन को बदलकर रख दे। गुरु के घर में ही रहकर खाना, पीना, सोना और साधना करनी पड़ती थी।
गुरु अपने जो पुराने कपड़े देते थे, वही पहनकर शिष्य साधना करता था। गुरु-शिष्य की परंपरा का यह आखिरी दौर चल रहा है। हो सकता है कि कुछ साल बाद गुरु-शिष्य की परंपरा लगभग खत्म-सी हो जाए।' उन्हाेंने कहा था कि ऐसी उम्मीद है कि छत्तीसगढ़ के नृत्य कलाकार इस परंपरा को कायम रखेंगे। उनके इस वक्तव्य को नईदुनिया ने प्रमुखता से प्रकाशित किया था।
शिष्यों में सीखने का समर्पण भाव हो
पं.बिरजू महाराज ने कहा था कि यह न समझें कि कथक नृत्य शैली को सिर्फ भारत में ही महत्व मिलता है, बल्कि विदेशों में कथक नृत्य के कद्रदान हैं। जापान से कत्थक सीखने उनकी एक शिष्या आईं, तब ऐसा लगा कि यह क्या सीख पाएंगी, लेकिन चाहे आंधी हो या तूफान, वह शिष्या सीखने अवश्य आती थीं। उनकी लगन देखकर भारतीय शिष्य भी प्रेरित होते थे। आज उस शिष्या ने जापान में अपना कत्थक प्रशिक्षण केन्द्र खोला है। ऐसे शिष्यों को देखकर खुशी होती है। शिष्य बनकर ही सीखा जा सकता है।
पढ़ाई और नृत्य साथ-साथ न हो
पं.बिरजू महाराज का कहना था कि कथक नृत्य को कुछ लोग पढ़ाई के साथ शौकिया तौर पर सीखते हैं। यदि वाकई इस विधा में प्रवीणता हासिल करनी हो तो 24 घंटे दिमाग में नृत्य का ही विचार आना चाहिए। पढ़ाई और नृत्य एक साथ करने से दक्षता प्राप्त नहीं की जा सकती।
सुंदर फूल की तरह खास शिष्य बनें
पं.बिरजू महाराज ने कहा था कि जिस तरह बाग में किस्म-किस्म के हजारों फूल होते हैं, लेकिन कुछ फूल ही बहुत सुंदर लगते हैं, वैसे ही शिष्य भी हजारों होते हैं, लेकिन एक-दो शिष्य ऐसे होते हैं, जिन्हें देखकर लगता है कि वे अति प्रिय हैं। ऐसा ही शिष्य बनने की ख्वाहिश होनी चाहिए।
प्रकृति की हर चीज से था प्यार
पं.बिरजू महाराज ने नईदुनिया से यह भी कहा था कि उन्हें प्रकृति की हर चीज से प्यार है। हमें पक्षी, जानवर सभी से कुछ न कुछ सीखना चाहिए। चलने, फिरने, उठने, बैठने हर अदा को नृत्य में ग्रहण करने की कला आनी चाहिए। कलाकार के लिए मंच ही भगवान है। साधना ही पूजा है।