अव्वल तो हमें इस बात में कोई संदेह नहीं होना चाहिए कि स्वच्छ भारत एक प्रशंसनीय लक्ष्य है और प्रधानमंत्री ने इसको प्राथमिकता देकर एक अच्छा कदम उठाया है। स्वच्छता की अनिवार्यत: शपथ दिलाने का विचार भले ही बहुत समझदारी भरा न हो, लेकिन देश के आमजन को एक स्वच्छ भारत के निर्माण के प्रति सचेत बनाना एक अच्छी बात है। इसके बावजूद, हमें इस कड़वी सच्चाई को स्वीकार करना होगा कि दशकों से अधिकारियों की उपेक्षा, निष्क्रियता व लापरवाही के कारण देश की एक बड़ी आबादी जिस गंदगी के बीच अपना जीवन बिताने को मजबूर है, उनकी स्थिति को सुधारने के लिए स्वच्छ भारत अभियान शायद इसलिए ज्यादा कुछ नहीं कर पाए, क्योंकि उसे महज कचरा बुहारने के अभियान के रूप में प्रचारित किया जा रहा है।

आज देश में लाखों लोग शहरी और ग्रामीण दोनों ही क्षेत्रों में बुनियादी साफ-सफाई के लिए जरूरी जलप्रदाय व्यवस्था और उपयुक्त सीवरेज सिस्टम के बिना रह रहे हैं। ऐसे में यह विचार एक क्रूर मजाक ही लगता है कि किन्हीं सफाई स्वयंसेवकों द्वारा हफ्ते में दो घंटे झाडू लगा देने भर से देश स्वच्छ हो जाएगा। सबसे पहले तो हमें ईमानदारीपूर्वक समस्या को समझना होगा। झाडू लेकर सफाई करने निकले बहुतेरे राजनेताओं की प्राथमिकता के दायरे में अभी तक शहरी कूड़ा-करकट ही रहा है, जबकि शहरी स्वच्छता के लिहाजा से यह समस्या का सबसे नगण्य पहलू है।

निश्चित ही, सड़कों पर कूड़ा-करकट फैला हो तो वह कोई बहुत सुखद दृश्य नहीं होता, लेकिन उनके लिए कोई कामचलाऊ समाधान खोजना आसान है, जैसे कि अहमदाबाद में चीनी राष्ट्रपति शी जिनपिंग की यात्रा के दौरान किया गया था। अहमदाबाद की झुग्गी बस्तियों को जिनपिंग की नजरों से बचाने के लिए गुजरात सरकार ने उनके सामने हरी स्क्रीन लगा दी थीं। असल समस्या तो तब शुरू होती है, जब कूड़े को सड़कों से बुहारकर इकठ्ठा तो कर दिया जाता है, लेकिन उसके बाद उनके निष्पादन की कोई व्यवस्था नहीं रहती, क्योंकि हमारे बहुत कम शहर कूड़े को संकलित व निष्पादित करने की उपयुक्त प्रणाली विकसित कर सके हैं।

जरूरत इस बात की है कि सफाई अभियान को सड़कों के बजाय घरों से शुरू किया जाए। साथ ही कचरे के संकलन और निष्पादन के लिए राज्य सरकार या नगरीय निकाय द्वारा संगठित सामूहिक प्रयास किए जाने चाहिए। कचरे के निष्पादन की समस्या अपने आपमें बहुत व्यापक है, क्योंकि मौजूदा कचरा भराव क्षेत्रों का ही प्रबंधन बहुत बुरी तरह से किया जा रहा है और वे पहले ही कूड़े से खचाखच भरे रहते हैं। भारत की शहरी जनसंख्या जिस तेजी से बढ़ रही है, उसके मद्देनजर बहुत संभव है कि सरकार अपने स्वच्छता के संकल्प के साथ अंतत: कचरा भराव क्षेत्रों की जगह बदलकर ही कचरे के निष्पादन की समस्या का समाधान

करने की कोशिश करने लगे।

वर्ष 1937 में प्रकाशित अपने शोध पत्र 'द फैंटसी ऑफ डर्ट" में लॉरेंस क्यूबी ने उचित ही कहा था कि लोग गीली गंदगी को सूखी गंदगी की तुलना में अधिक गंदा समझते हैं। यही कारण है कि सफाई स्वयंसेवकों से सूखे कचरे को बुहारने का कहना आसान है, लेकिन उन्हें किसी के यहां जाकर जूठे बर्तन मांजने या टॉयलेट्स साफ करने के लिए राजी करना बहुत कठिन है। महात्मा गांधी यह बड़ी आसानी से कर सकते थे, लेकिन किसी भी आधुनिक राजनेता के लिए ऐसा करना कठिन होगा।

सीवेज ट्रीटमेंट और उसका डिस्पोजल हमारे सामने स्वच्छता से संबंधित सबसे बड़ी चुनौतियां हैं। एक सार्वजनिक अभियान चलाकर लोगों को अपनी साफ-सफाई संबंधी आदतें बदलने के लिए तो प्रेरित किया जा सकता है, लेकिन इससे महानगरीय आर्थिकी को नहीं बदला जा सकता। देश के राजनेताओं ने कभी भी शहरी गरीबों की स्थिति के बारे में चिंता नहीं की है। यही कारण है कि आज भारत में करोड़ों लोग नालों के इर्द-गिर्द रह रहे हैं, वे खुले में शौच करने को मजबूर हैं और चूंकि उन्हें साफ पानी की सुविधा भी नहीं मिलती, इसलिए वे खुद को स्वच्छ भी नहीं रख पाते। अगर किन्हीं बस्तियों में पाइप लाइन होती भी है तो वह सीधे तमाम कूड़े-करकट को बहाकर किसी नदी या जलाशय में ले जाती है।

इसकी तुलना में गांवों और कस्बों में यह समस्या भले ही महानगरों जितनी विकराल दिखाई न देती हो, लेकिन वह वहां भी इतनी ही विकट है। मनमोहन सरकार और मोदी सरकार दोनों ने ही अनेक अवसरों पर खुले में शौच की स्थिति को खत्म करने की बात कही है, लेकिन इस समस्या का निदान केवल यही नहीं है कि टॉयलेट्स बना दिए जाएं, बल्कि इसके लिए जलप्रदाय और मल-उत्सर्जन की एक प्रणाली विकसित किए जाने की जरूरत है। इनके अभाव में वे टॉयलेट भी किसी काम के नहीं रह जाते, जो पहले से ही निर्मित हैं। जलविहीन टॉयलेट्स की बात भी की जा रही है, लेकिन उनके नियोजन और निर्माण के लिए तो निश्चित ही राज्य सरकार को हस्तक्षेप करना होगा।

मोदी सरकार को अगर वर्ष 2019 तक एक स्वच्छ भारत के निर्माण का अपना लक्ष्य अर्जित करना है तो इसके लिए एक ठोस नीति बनाना होगी। इसके लिए बजटीय प्रावधान भी बढ़ाए जाने की जरूरत है। वित्त मंत्री अरुण जेटली ने सफाई कार्यों के लिए गत सरकार द्वारा आवंटित किए गए 15260.70 करोड़ रुपयों में केवल छह करोड़ रुपयों का इजाफा किया है।

सार-संक्षेप यही है कि एक स्वच्छ भारत का निर्माण तब तक नहीं किया जा सकता, जब तक शहरों में एक आधुनिक सीवरेज प्रणाली और हर गांव-कस्बे में पाइप के जरिए जलप्रदाय की प्रणाली विकसित नहीं की जाती। इस बुनियादी ढांचे का निर्माण किए बिना हर हफ्ते सड़कों पर झाडू लगा देने या टॉयलेट्स का निर्माण करवा देने भर से ज्यादा कुछ नहीं होगा। एक स्वच्छ भारत के लिए कचरे के संकलन और निष्पादन की एक पेशेवर प्रणाली भी विकसित करना होगी। इस प्रणाली को तो केंद्रीयकृत होने की भी जरूरत नहीं है और इसे वार्ड या मोहल्ला स्तर पर भी अच्छे से चलाया जा सकता है। इसके लिए स्मार्ट शहरों को बसाए जाने की जरूरत नहीं है, बस मौजूदा शहरों के मास्टरप्लान को ठीक तरह से बनाने भर से काम चल जाएगा। यह भी स्पष्ट है कि शहरी स्वच्छता के लिए पेशेवर लोगों की दरकार होती है, जिन्हें इसके लिए उचित भुगतान, सुविधाएं और उपकरण मुहैया कराए जाएं। ठेके पर कम वेतन में काम करने वाले लोगों को असुरक्षित और अस्वच्छ जगहों में सफाई के लिए झोंक देने भर से काम नहीं चलेगा।

(लेखक 'द हिंदू" के पूर्व संपादक व वरिष्ठ पत्रकार हैं। ये उनके निजी विचार हैं)

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