मराठों के आधिपत्य में हुआ महाकुंभ
सन् 1732 (विक्रम संवत 1789) : प्राचीनकाल में सिंहस्थ महापर्व वृश्चिक राशि में गुरु के आने पर मनाया जाता था। सन् 1730-31 में मालवा प्रांत पर मराठों का आधिपत्य हुआ, तब सिंधिया राजवंश की राजधानी उज्जैन के महाराजा श्री राणोजी शिंदे की आज्ञा से 1732 में वैशाख शुक्ल पूर्णिमा के दिन सिंहस्थ महाकुंभ का आयोजन किया गया।
नागाओं और वैष्णवों के बीच हो गया था टकराव
सन् 1885 (विक्रम संवत 1942) : इस सिंहस्थ में वैष्णवों से नागा संन्यासियों की लड़ाई हो गई थी। शिप्रा के पास दत्त अखाड़े में नागों की रसोई हो रही थी। उधर लक्खी घाट स्थित नागों के मठ पर हमला हो गया। मठ में श्री दत्तात्रेयजी का स्वर्ण मंडित मंदिर था, जिसे लूट लिया गया। विरोध स्वरूप नागाओं ने वैष्णवों पर हमला बोल दिया, जिसमें हजारों की संख्या में बैरागी मारे गए। इसमें मृत नागाओं की समाधियां शिप्रा नदी के किनारे आज भी शिवलिंगों के रूप में बनी हुई हैं।
महिदपुर के गंगावाड़ी में हुआ था सिंहस्थ स्नान
सन् 1897 (विक्रम संवत 1954) : वर्ष 1897 में उज्जैन में भीषण अकाल पड़ा। ऐसे में सिंहस्थ में साधुओं के अन्न्-जल के प्रबंध पर सवाल उठ गए। तत्कालीन सिंधिया रियासत ने इंदौर होलकर रियासत के मार्फत साधुओं को कहलवाया कि वे उज्जैन न आएं। सिंधिया रियासत ने आपातकालीन व्यवस्था न कर पाने की बात के साथ सख्ती के संकेत भी दिए। उस वक्त इंदौर से उन्हेल होकर महिदपुर का रास्ता था। महिदपुर में होलकर रियासत का राज था। शिप्रा की एक डगाल तब महिदपुर के गंगावाड़ी क्षेत्र में भी थी। होलकर रियासत ने साधुओं के नहान की व्यवस्था गंगावाड़ी में की और वहीं पर सिंहस्थ मेला भरा। वह एक महत्वपूर्ण दुर्लभ अवसर था, जब शिप्रा के रामघाट पर सिंहस्थ स्नान नहीं हुआ।
महामारी का प्रकोप हो गया था महाकुंभ में
सन् 1921 (विक्रम संवत 1978) : इस सिंहस्थ में उज्जैन में शाही स्नान के दिन यानी 21 मई शनिवार को महामारी का प्रकोप हो गया और हजारों लोग व साधु मृत्यु को प्राप्त हो गए। शासन द्वारा तत्काल शहर खाली करवाने का ऐलान किया गया। लोगों को जो भी साधन मिलें, उनसे बाहर भेजने का प्रबंध करवाया गया। बाद में महामारी से बचने के लिए आगामी सिंहस्थ में केवल वैशाख पूर्णिमा का मुख्य स्नान ही करने का निर्णय लिया गया। इस सिंहस्थ की एक और अविस्मरणीय घटना है 9 मई 1921 के दिन शिप्राजी की साक्षी में रामानुजी और रामानंदी संप्रदाय के बीच हुआ शास्त्रार्थ। इसमें रामानंद संप्रदाय विजयी हुआ। तभी से ये दोनों संप्रदाय भिन्न् हैं और उनकी गुरु परंपरा भी अलग है। शास्त्रार्थ का अविकल पाठ संस्कृत में लिखित है।
संतों और नागरिकों ने स्वयं संभाला था सिंहस्थ का इंतजाम
सन् 1945 (विक्रम संवत 2002) : दूसरा विश्व युद्ध जारी रहने के कारण ग्वालियर स्टेट की तरफ से यह सिंहस्थ न मनाए जाने का आदेश निकाला गया था। इस आदेश को अखाड़ों और लोगों ने नहीं माना। दत्त अखाड़े के गादीपति सिद्ध महापुरुष श्रीमहंत पीर, श्री संध्यापुरीजी महाराज की अध्यक्षता में संतों-महंतों और नागरिकों की एक बैठक बुलाई गई, जिसमें निर्णय लिया गया कि 15 दिन की व्यवस्था पीरजी द्वारा 15 दिन की व्यवस्था उज्जैन के धर्मालुजन करेंगे। इस प्रकार एक माह का सिंहस्थ संपन्न् हुआ।
लगातार दो साल तक मनाया गया था सिंहस्थ
सन् 1957 (विक्रम संवत 2014) : श्रीकरपात्रीजी और दंडी स्वामियों ने सन् 1956 में उज्जैन में सिंहस्थ मनाने का निर्णय लिया, लेकिन षड्दर्शन अखाड़ों ने इन्हें 1957 में सिंहस्थ करने को कहा। विवाद चला और दंडी स्वामियों ने 1956 और षड्दर्शन अखाड़ों ने 1957 में सिंहस्थ मनाया। इसी सिंहस्थ में शाही स्नान को जुलूस के रूप में जाने के विष्ज्ञय में प्रमुख संन्यासी अखाड़ों जूना, महानिर्वाणी और निरंजनी ने 13 मई 1957 के सिंहस्थ के लिए आपसी सहमति से समझौता किया कि सबसे पहले दत्त अखाड़े का निशान निकलेगा और उसके बाद अन्य अखाड़ों के। लगभग ऐसी ही घटना 1969 के सिंहस्थ में भी घटी, जब इस बार वैष्णव अणि अखाड़ों में विवाद उत्पन्न् हो गया। तब वैष्णव अणि अखाड़ों ने 1968 में सिंहस्थ मनाया और अन्य अखाड़ों ने 1969 में।
सिंहस्थ के दौरान लगाना पड़ी थी धारा 144
सन् 1980 (विक्रम संवत 2037) : इस सिंहस्थ का मुख्य शाही स्नान वैशाख पूर्णिमा दिनांक 30 अप्रैल को था। वैष्णव अणि अखाड़ों ने इसमें तीन शाही स्नान 13, 17 व 30 अप्रैल को कराने की मांग की थी। चूंकि सन् 1935 से एक ही शाही स्नान वैशाख पूर्णिमा को करने की परंपरा थी, इसलिए एक ही शाही स्नान कराने का निर्णय लिया गया। लेकिन बहुत समझाने पर भी वैष्णव अणि अखाड़ों ने जिद नहीं छोड़ी। इस पर मेला प्रशासन ने धारा 144 लगा दी और 13 अप्रैल को जुलूस निकालने पर पाबंदी लगा दी। वैष्णवों ने पाबंदी तोड़कर अपने निशानों के साथ घाट पर स्नान के लिए जाने की कोशिश की, तब जाकर प्रशासन को उन्हें तीन अलग-अलग स्नान करने की अनुमति देना पड़ी।