सिंधु संधि के तहत भारत द्वारा अभूतपूर्व उदारता दिखाते हुए जम्मू-कश्मीर से निकली नदियों का अधिकांश पानी पाकिस्तान को देने के बावजूद बिगड़ैल पड़ोसी इसे लेकर हमेशा बखेड़ा खड़ा करता है। एक बार फिर वह इस मामले को अंतरराष्ट्रीय ट्रिब्यूनल में ले जाना चाहता है। दरअसल, ये पाकिस्तान का भारत के साथ छद्म जलयुद्व है, जिसके जरिए वह भारत पर दबाव बनाना चाहता है।
हाल ही में जिस तरह दक्षिण चीन सागर पर अधिकार जताने के लिए फिलीपींस अपने पड़ोसी चीन को हेग स्थित अंतरराष्ट्रीय मध्यस्थता ट्रिब्यूनल के सामने ले गया था, कुछ उसी तरह पाकिस्तान ने भी भारत को ट्रिब्यूनल में ले जाने की मंशा जताई है। पाकिस्तान सिंधु प्रणाली की छह नदियों के पानी की साझेदारी में विवाद का हवाला दे रहा है। यह पहली बार नहीं है कि पाकिस्तान अपने पड़ोसी देश भारत के खिलाफ कार्रवाई की मांग कर रहा है और न ही अंतिम बार है। वास्तव में अंतरराष्ट्रीय हस्तक्षेप की गुहार लगाना भारत के खिलाफ पाकिस्तान की जलयुद्ध रणनीति का हिस्सा है।
सन् 1947 में भारत से अलग होकर पाकिस्तान उत्तर औपनिवेशिक युग का पहला इस्लामिक देश बना। दोनों देशों में बंटवारा कुछ इस तरह हुआ कि सिंधु नदी का उद्गम क्षेत्र भारतीय सीमा में रह गया, लेकिन नदी के बेसिन का बड़ा हिस्सा नए बने देश पाकिस्तान में चला गया। जाहिर है, इससे भारत को पाकिस्तान पर एक तरह से दुर्जेय रणनीतिक बढ़त मिल गई थी। दोनों देशों के बीच लंबी सौदेबाजी के बाद जवाहरलाल नेहरू पाकिस्तान के साथ सिंधु नदी के जल की साझेदारी के लिए समझौता करने पर सहमत हो गए। इसे दुनिया की सबसे उदार जल साझेदारी वाली संधि कहा जाता है। 1960 में हुई इस सिंधु जल संधि ने पाकिस्तान के लिए तीन सबसे बड़ी नदियों को सुरक्षित कर दिया। सिंधु नदी प्रणाली के कुल पानी का लगभग 80 प्रतिशत हिस्सा पाकिस्तान के खाते में चला गया, जबकि सिर्फ 19.48 प्रतिशत भाग ही भारत के हाथ आया।
दुनिया में यह एकमात्र ऐसी अंतरदेशीय जल संधि है जो संप्रभुता के सिद्धांत को नकारती है। यह जिस देश से नदी निकलती है उस देश को, पानी के बहाव वाले देश के पक्ष में अपना हक त्यागने को बाध्य करती है। इसके विपरीत चीन का अपने यहां से निकलने वाली नदियों के पानी पर पूरा प्रभुत्व है। वह खुलेआम यह कह भी चुका है कि उसका अपने यहां से निकलने वाली नदियों के पानी पर पूर्ण अधिकार है। वह नदी के बहाव क्षेत्र पर पड़ने वाले प्रभाव की परवाह नहीं करता। यही वजह है कि चीन ने अपने 13 पड़ोसी देशों के साथ जल साझेदारी का कोई समझौता नहीं किया।
2011 में अमेरिकी सीनेट की फॉरेन रिलेशन कमेटी के लिए तैयार की गई रिपोर्ट में सिंधु जल संधि को दुनिया की सबसे सफल जल संधि बताया गया था। अभी मौजूदा अंतरराष्ट्रीय संधियों में इसे सबसे विशाल संधि मानने की एक बड़ी वजह यह है कि यह बहाव क्षेत्र के लिए यानी पाकिस्तान के लिए प्रति वर्ष 167 अरब क्यूबिक मीटर जल सुरक्षित करती है। इसकी तुलना में इजरायल-जॉर्डन शांति समझौते में प्रति वर्ष सिर्फ 8.5 करोड़ क्यूबिक मीटर पानी के आवंटन की बात कही गई है, जबकि 1944 में अमेरिका के साथ हुई एक जल संधि के तहत मैक्सिको उससे प्रति वर्ष 1.85 अरब क्यूबिक मीटर पानी साझा करता है। यह मात्रा सिंधु संधि के तहत पाकिस्तान को मिलने वाले जल से 90 गुना कम है।
यह पृष्ठभूमि दो सवाल खड़े करती है। भारत पाकिस्तान के लिए इतनी बड़ी मात्रा में सिंधु नदी का जल क्यों छोड़ता है? और पाक पानी के मुद्दे पर हमेशा क्यों भारत से झगड़ता है? दरअसल, दोनों देशों के बीच परस्पर राजनीतिक विश्वास की कमी है, यहां तक कि एक व्यापक जल संधि भी इसके लिए अपर्याप्त साबित हुई है।
1960 में जब चीन के साथ सीमा पर तनाव तीव्र था, भारत ने जल के शांतिपूर्ण उपयोग के लिए पाकिस्तान के साथ एक संधि की मांग की। लेकिन विडंबना यह है कि संधि भारतीय राज्य जम्मू-कश्मीर (यहां की तीन नदियों को पाकिस्तान के लिए सुरक्षित किया गया) की भूमि पर नियंत्रण करने की पाकिस्तान की इच्छा को तेज करने के साथ खत्म हुई। इस प्रकार जब जल सुरक्षा का सवाल क्षेत्रीय नियंत्रण के साथ जुड़ गया तो पाकिस्तान ने जम्मू-कश्मीर को हड़पने के लिए 1965 में अचानक से युद्ध छेड़ दिया, लेकिन वह अपने मिशन में विफल रहा।
दशकों से जम्मू-कश्मीर भारत और पाकिस्तान के बीच तनाव का केंद्र रहा है। वहीं संधि के जरिये भारत के हिस्से का पानी पाकिस्तान को उपहार स्वरूप देने से इस क्षेत्र का विकास रुक गया। पाकिस्तान समर्थित इस्लामिक चरमपंथियों ने वहां के हालात को और खराब कर दिया है। यही कारण है कि जम्मू-कश्मीर के निर्वाचित प्रतिनिधि सिंधु समझौते में सुधार या उसे खत्म करने की मांग करते रहे हैं।
जम्मू-कश्मीर में बिजली और विकास की समस्या पर भारत ने देर से ध्यान दिया। इसके लिए वहां नदी पर छोटी-छोटी पनबिजली परियोजना लगाने का कार्य आरंभ हुआ, लेकिन हर बार पाकिस्तान ने विवाद खड़ा कर दिया। पारंपरिक अंतरराष्ट्रीय जल कानून के सिद्धांतों का हवाला देते हुए संधि में कहा गया है कि भारत को किसी भी नई परियोजना की जानकारी पाकिस्तान को देनी होगी, परंतु इसका अर्थ यह नहीं कि परियोजना शुरू करने के लिए उसकी सहमति जरूरी है। बहरहाल, पाकिस्तान ने इसका भारत के खिलाफ वीटो पॉवर की तरह इस्तेमाल किया है। उसने हर भारतीय प्रोजेक्ट का विरोध किया है। उसके विरोध के कारण कई भारतीय परियोजनाएं सालों से लंबित पड़ी हैं, उनकी लागत भी बढ़ रही है। यह जम्मू-कश्मीर में अशांति की आग को धीरे-धीरे उग्र करने की उसकी रणनीति का हिस्सा है।
दरअसल, भारत ने जम्मू-कश्मीर में अब तक जितनी पनबिजली परियोजना लगाई हैं या लगा रहा है, उसका आकार पाकिस्तान की एक परियोजना जैसे सात हजार मेगावाट वाले बुंजी डैम या 4500 मेगावाट वाले भासा डैम के आकार से भी कम है। एक तरफ पाकिस्तान भारत की पनबिजली परियोजनाओं का विरोध कर रहा है, लेकिन दूसरी तरफ उसने गुलाम कश्मीर में मेगा डैम के निर्माण के लिए चीन को न्यौता दिया है। अब एक बार फिर पाकिस्तान ने दो भारतीय परियोजनाओं को अंतरराष्ट्रीय मध्यस्थता ट्रिब्यूनल के समक्ष ले जाने का निर्णय किया है। पिछले वर्षों में भी पाकिस्तान ने दो अन्य परियोजनाओं में अंतरराष्ट्रीय ट्रिब्यूनल के हस्तक्षेप की मांग की थी, लेकिन वह भारत के सामने बाधा पैदा नहीं कर सका।
पाकिस्तान भारत पर राजनीतिक दबाव डालने के लिए सिंधु जल संधि के प्रावधानों का लगातार हवाला दे रहा है। इस क्रम में वह इस अनोखी संधि पर पड़ने वाले खतरे को नजरअंदाज कर रहा है। वह इसका दुरुपयोग भारत के खिलाफ जल युद्ध छेड़ने के लिए कर रहा है। पाकिस्तान बिना जिम्मेदारी के अधिकार चाहता है। वह चाहता है कि भारत अपने हिस्से के पानी को देने की उदारता बरते भले ही उसकी सेना भारत को बदले में आतंकवाद का निर्यात कर रही हो। किसी भी जल संधि का तुलनात्मक भार इस तरह होना चाहिए कि जो सबसे ज्यादा फायदे में रहे उसके कर्तव्य और जिम्मेदारी भी अधिक रहें। वहीं जो देश इससे परेशानी महसूस कर रहा हो वह स्वयं को अलग कर सकता है। यदि भारत स्वयं को हारा हुआ देखना शुरू कर देता है तो इस संधि को कोई भी नहीं बचा सकता। कोई भी अंतरराष्ट्रीय ट्रिब्यूनल इस जोखिम को नहीं टाल सकता है।
(लेखक सेंटर फॉर पॉलिसी रिसर्च में सामरिक अध्ययन के प्रोफेसर हैं। ये उनके निजी विचार हैं।)