भगवान बुद्ध का उपदेश सुनने के लिए भिक्षुओं समेत नगरवासी और महाकश्यप भी सभास्थल पर एकत्रित थे। सभी बुद्ध के आने की प्रतीक्षा कर रहे थे। बुद्ध आए और मंच पर आसीन हो गए। उनके दाईं ओर आनंद और बाईं ओर आर्य रैवत खड़े थे। आर्य रैवत ने बुद्ध से निवेदन किया - 'भगवन्, कुछ विद्वान आपसे शास्त्रचर्चा के लिए उत्सुक हैं। उनका आग्रह है कि आप शास्त्रों के बारे में कुछ कहें।"
यह सुनकर तथागत के अधरों पर हल्की मुस्कान थिरक उठी। इसके बाद उन्होंने गंभीर स्वर में कहा - 'मैंने तो केवल एक ही शास्त्र का अध्ययन किया है। वह शास्त्र न तो स्याही और अक्षरों से लिखा गया है और न ही भविष्य में लिखा जाएगा। यह शास्त्र है जीवन-शास्त्र, जो कर्मों के अक्षरों और भावनाओं की स्याही से लिखा जाता है। जो इसे जान, समझ और पढ़ लेता है, वही पंडित है, ज्ञानी है। सभी शास्त्र जीवन के स्रोत से प्रकट होते हैं, परंतु जीवन किसी भी शास्त्र से प्रकट नहीं होता।" यह सुनकर एक भिक्षु ने पूछा - 'भगवन्, इस जीवन-शास्त्र को पढ़ने की विधि क्या है? जीवन के मर्म, इसमें निहित सत्य को जानने के लिए क्या करना चाहिए?"
बुद्ध बोले - 'जीवन-शास्त्र शांत मन के प्रकाश में पढ़ा जाता है और यह शांत मन सद्विचार एवं सत्कर्मों की निरंतरता का सुफल है।" बुद्ध कुछ पल रुके, फिर उन्होंने अपनी बात को विस्तार देते हुए कहा - 'सद्विचार एवं सत्कर्म निरंतर होते रहें, तो जीवन-शास्त्र के सभी अक्षर स्वत: ही अपना मर्म प्रकट कर देते हैं। पर यदि इसके विपरीत किया जाए तो हमारा सारा जीवन अंधकार, पीड़ा एवं विष से घिर जाता है। इस अंधकार में फिर जीवन का कोई अर्थ प्रकट नहीं होता। बस रह जाती है तो केवल निरर्थकता। इसलिए जो भी सत्य व सार्थकता खोजना चाहते हैं, उन्हें अपने जीवन में सच्चिंतन एवं सत्कर्म की निरंतरता पैदा करना ही होगी। यदि ऐसा हुआ तो यह लोक और परलोक आनंदपूर्ण हो जाएगा। यदि ऐसा नहीं हो सका, यदि इसके विपरीत हुआ तो न केवल इस लोक में शोक होगा, बल्कि परलोक भी शोकपूर्ण हो जाएगा। व्यक्ति के पुण्य-कर्मों का आनंद सदा उनके साथ चलता है। उसी तरह पाप करने का विषाद भी साथ ही चलता है।" बुद्ध के श्रीमुख से इन सद्वचनों को सुन उपस्थितजन उनकी जय-जयकार कर उठे।