बंगाल के प्रसिद्ध शिक्षाशास्त्री व समाजसेवक भूदेव मुखोपाध्याय का पुत्र उन दिनों स्कूल में पढ़ता था। एक दिन स्कूल में दुर्गा उत्सव पर चर्चा चल रही थी। एक-एक कर कई लड़कों ने अपने घर में चल रही दुर्गा पूजा की तैयारियों के बारे में बताया। जब उस छात्र की बारी आई तो उसे कुछ समझ में नहीं आया कि वह क्या कहे?
उसे चुप देख शिक्षक ने पूछा - 'क्या तुम्हारे यहां दुर्गा पूजा का उत्सव नहीं मनाया जाता?" 'मनाते तो हैं गुरुजी!" - छात्र ने हिचकते हुए कहा। इसके बाद उसने तैयारियों का जो स्वरूप बताया उसका सारांश यह था कि कार्यक्रम बेहद सादगी के साथ संपन्न् किया जाता है। भूदेव मुखोपाध्याय का इतना संपन्न् परिवार और फिर भी कार्यक्रम में इतना कम खर्च, यह जानकर छात्रों को हंसी आ गई। एक साथी ने व्यंग्य करते हुए कहा - 'तुम्हारा परिवार तो बेहद कंजूस है। इतना अधिक पैसा तुम्हारे घर में है, फिर भी तुम लोग दुर्गा पूजा पर इतना कम खर्च करते हो।"
छुट्टी के बाद स्कूल से घर पहुंचते ही बालक सीधा अपने पिता के पास गया और बोला - 'पिताजी, हमारे पास इतना पैसा होने के बावजूद हम दुर्गा पूजा के अवसर पर कंजूसी क्यों बरतते हैं? और लोग जिस तरह उत्सव मनाते हैं, उसी तरह हम क्यों नहीं मनाते?" भूदेव बाबू ने कहा - 'बेटा, पूजा हम करते तो हैं। चंडी पाठ, घट पूजा आदि पूरे विधि-विधान से कराते हैं। हां, जो बातें पूजा का अंग नहीं हैं जैसे ढोल-बाजे बजवाना, गाना-तमाशा करना आदि बातें हम नहीं करते। करना भी नहीं चाहिए, क्योंकि यह धन की बर्बादी है।"
बात आई-गई हो गई। कई साल गुजर गए। पुत्र अब वयस्क हो गया था और भूदेव बाबू वृद्ध हो चले थे। एक दिन उन्होंने अपने पुत्र को बुलाया और कहा - 'बेटा, मैंने जीवन में जो कुछ भी बचाकर रखा, मैं चाहता हूं कि उसका एक ट्रस्ट बना दिया जाए और उस ट्रस्ट के द्वारा संस्कृत, संस्कृति तथा समाज की सेवा हो। तुम्हें इस संपत्ति से कोई आकर्षण तो नहीं?"
पुत्र ने कहा - 'संपत्ति से आकर्षण है। पर इस संपत्ति से नहीं। मुझे आकर्षण उस संपत्ति से है जो मैंने आपके जीवन से प्राप्त की है। वह यह कि धन की व्यर्थ बर्बादी को रोककर सादगी के साथ रहते हुए जो कुछ अर्जित किया जाए, वह समाज को ऊंचा उठाने में लगा दिया जाए।"