
डिजिटल डेस्क। बिहार विधानसभा चुनाव (Bihar Election 2025) के नतीजों ने राज्य की राजनीतिक तस्वीर पूरी तरह बदल दी है। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी और मुख्यमंत्री नीतीश कुमार की जोड़ी ने ऐसा जनादेश हासिल किया है जिसने 2010 के तमाम रिकॉर्ड पीछे छोड़ दिए।
एनडीए (National Democratic Alliance) ने 202 सीटों पर जीत दर्ज कर सत्ता में न सिर्फ दमदार वापसी की, बल्कि यह भी साबित किया कि मतदाता विकास और स्थिर नेतृत्व को प्राथमिकता देने के मूड में हैं। भाजपा 89 सीटों के साथ सबसे बड़ी पार्टी बनी, जबकि जदयू ने 85 सीटें हासिल कर अपने पिछले प्रदर्शन को दोगुना कर दिया।
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करीब दो दशकों से सत्ता में रहने के बावजूद सत्ता-विरोधी लहर एनडीए को छू नहीं सकी। इसकी सबसे बड़ी वजह रही सुशासन, विकास और सुरक्षा का मजबूत दावा, वह दावा जिसने मतदाताओं को फिर एक बार ‘डबल इंजन सरकार’ के पक्ष में खड़ा किया। अभियान के दौरान एनडीए ने लगातार जंगलराज के दौर की तुलना आज के बिहार से की, और प्रधानमंत्री मोदी व नीतीश कुमार ने जिस आत्मविश्वास के साथ यह नरेटिव जनता तक पहुंचाया, उसने मतदाताओं के मन में भरोसा पैदा किया।
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दूसरी ओर, सात दलों वाले महागठबंधन को जहां सरकार बनाने का भरोसा था, वहीं नतीजे आते ही पूरी रणनीति धराशायी हो गई। तेजस्वी यादव को मुख्यमंत्री और वीआईपी प्रमुख मुकेश सहनी को उप मुख्यमंत्री बनाने की घोषणा भी मतदाताओं को प्रभावित नहीं कर सकी। स्थिति यह रही कि सहनी की पार्टी विधानसभा में प्रवेश तक न कर पाई। वाम दलों सहित महागठबंधन के अधिकांश घटक दलों को करारी हार का सामना करना पड़ा, जबकि जन सुराज पार्टी के सभी 240 उम्मीदवार जमीन भी नहीं बचा सके।
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इस चुनावी नतीजे की जड़ें एनडीए के संयुक्त और स्पष्ट संदेश में छिपी थीं। नीतीश सरकार की योजनाओं - पढ़ाई से लेकर नौकरी, सुरक्षा से लेकर सिविल सर्विस तैयारी सहायता, ने खासकर महिला मतदाताओं को प्रभावित किया। उद्यमिता के लिए 10 हजार रुपये की योजना और कानून-व्यवस्था में सुधार ने भी दूसरा भरोसा बनाया। इस बार महिला वोट निर्णायक भूमिका में रहीं और उन्होंने स्पष्ट रूप से स्थिरता और सुशासन की ओर झुकाव दिखाया।
इसके विपरीत महागठबंधन नेतृत्व और समन्वय दोनों स्तरों पर भ्रमित दिखाई दिया। राजद और कांग्रेस के बीच मुख्यमंत्री और उप मुख्यमंत्री के चेहरों को लेकर शुरू हुई खींचतान, सीटों के बंटवारे पर अनबन, और चुनावी रणनीति में असहमति ने गठबंधन की छवि को कमजोर कर दिया। तेजस्वी यादव ने प्रदेशभर में रैलियां जरूर कीं, पर गठबंधन के अन्य सहयोगी दलों को जोड़कर एक सुसंगत एजेंडा तैयार करने में विफल रहे। परिणाम यह हुआ कि महागठबंधन की आवाज मतदाताओं तक बिखरी, कमजोर और अस्पष्ट रूप में पहुंची।

चुनाव में एनडीए ने जहां विकास और कानून-व्यवस्था के मजबूत मॉडल को तथ्य और उपलब्धियों के साथ पेश किया, वहीं महागठबंधन बेरोजगारी और महंगाई जैसे मुद्दों को जनता की अपेक्षाओं के अनुरूप धार नहीं दे पाया। सबसे बड़ी कमी एक भरोसेमंद, भविष्य-केंद्रित रोडमैप की रही। मतदाता नौकरी, स्टार्टअप, शिक्षा और सुरक्षित भविष्य जैसे विषयों पर ठोस विकल्प तलाश रहे थे, जो उन्हें केवल एनडीए की ओर से मिला।
महागठबंधन की संगठनात्मक ढिलाई भी हार का एक बड़ा कारण बनी। बूथ प्रबंधन कमजोर रहा, कई सीटों पर उम्मीदवार बदलने से स्थानीय असंतोष बढ़ा और कांग्रेस के कमजोर प्रदर्शन ने पूरे गठबंधन को भारी नुकसान पहुंचाया। टिकट वितरण से लेकर प्रचार तक, कांग्रेस की मशीनरी सुस्त दिखी और यह असंतुलन संयुक्त संघर्ष को बिखरा और अविश्वसनीय बनाता गया।
जातीय समीकरण भी इस बार महागठबंधन के लिए उम्मीद के अनुसार काम नहीं कर पाए। बिहार का सामाजिक ढांचा बदल रहा है। युवा और महिलाएं अब अपने करियर, सुरक्षा और अवसरों को जातीय पहचान से ऊपर रखकर वोट कर रहे हैं। इस बदलाव को एनडीए ने समझा और रणनीति में शामिल किया, जबकि महागठबंधन पुराने समीकरणों पर ही टिका रहा।
चुनावी नतीजे यह साफ कर देते हैं कि आज का बिहार केवल गठबंधन, नारे या वादों पर भरोसा नहीं करता। उसे सुशासन का ठोस रिकॉर्ड, स्पष्ट नेतृत्व और भविष्य का सक्षम मॉडल चाहिए। एनडीए यह सब प्रस्तुत करने में सफल रहा, जबकि महागठबंधन अपनी आंतरिक खींचतान, असंगठित रणनीति और अस्पष्ट संदेश के कारण हार की ओर बढ़ता गया।
भविष्य की दृष्टि से महागठबंधन के लिए यह चुनाव सबक है कि अगर उसे गंभीर राजनीतिक चुनौती बनना है, तो उसे नेतृत्व, समन्वय, संगठन और चुनावी संदेश इन चारों क्षेत्रों में गहराई से सुधार करने होंगे। अन्यथा बिहार में राजनीतिक जमीन लगातार उसकी पकड़ से दूर होती जाएगी।