पांच राज्यों- बंगाल, असम, केरल, तमिलनाडु और पुडुचेरी में विधानसभा चुनाव घोषित होने के पहले से ही भाजपा ने इन राज्यों में अपना ध्यान केंद्गित कर रखा था। बंगाल में तो भाजपा ने पिछले डेढ़ साल से ऐसा माहौल बना रखा है कि तृणमूल कांग्रेस की मुश्किलें बढ़ती जा रही थीं। तृणमूल नेताओं के भाजपा में शामिल होने का जो सिलसिला कायम हुआ था, वह चुनावों की घोषणा के बाद और तेज हो गया है। भाजपा में शामिल होने वाले तृणमूल के कुछ बड़े नेता भी हैं। इनमें दिनेश त्रिवेदी प्रमुख हैं। ममता बनर्जी के खास माने जाने वाले सुवेंदु अधिकारी भाजपा में आने के बाद अब उन्हेंं ही नंदीग्राम में चुनौती दे रहे हैं। तृणमूल बंगाल में भाजपा की बढ़त रोकने के लिए हर तरह के हथकंडे अपना रही है। इनमें भाजपा कार्यकर्ताओं के खिलाफ हिंसा भी शामिल है और पुलिस का दुरुपयोग भी। शायद इसी कारण चुनाव आयोग ने राज्य के पुलिस प्रमुख को हटा दिया। यदि तृणमूल कांग्रेस सत्ता से बाहर हुई तो फिर उसके लिए दोबारा अपनी पैठ बनाना मुश्किल होगा। भाजपा बंगाल में सत्ता में आने के लिए इसलिए कमर कसे हुए है, क्योंकि लगभग साढे तीन साल बाद लोकसभा चुनाव होने हैं और वह यह जानती है कि उसे उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, राजस्थान, गुजरात, हरियाणा आदि में कुछ नुकसान हो सकता है। इसी कारण वह बंगाल जैसे राज्यो में अपनी जमीन मजबूत करना चाहती है। यह तभी संभव है, जब वह वहां सत्ता हासिल करे। वह इसी कोशिश में है, लेकिन कांग्रेस यहां सत्ता की दौड़ में ही नहीं दिख रही है।
बंगाल में 2019 के लोकसभा चुनाव में भाजपा ने 18 सीटें हासिल की थीं। यह अप्रत्याशित जीत थी। इस जीत ने भाजपा का मनोबल बढ़ाया। ममता दस सालों से मुख्यमंत्री हैं, लेकिन उनके लिए तीसरी बार सत्ता हासिल करना आसान नहीं, क्योंकि सत्ता विरोधी रुझान मजबूत होता दिखता है। भाजपा ने अपने चुनाव अभियान को प्रधानमंत्री मोदी की छवि और केंद्र सरकार के कामकाज पर केंद्रित किया हुआ है। इसके जवाब में तृणमूल के पास जनता को आकॢषत करने के लिए कुछ खास नहीं है। पिछले दस वर्षों में बंगाल की हालत में कोई खास परिवर्तन देखने को नहीं मिला है। ममता सरकार ने केंद्र की योजनाओं को अपने यहां लागू न करने का जो काम किया, उसकी सफाई में उसके पास कहने के लिए कुछ नहीं है। बंगाल में यह धारणा मजबूत हुई है कि जो तौर-तरीके वाम दलों ने अपना रखे थे, वही ममता ने अपना लिए। ममता सरकार ने मुस्लिम तुष्टीकरण की जो रणनीति अपना रखी थी, वह इस बार काम आने वाली नहीं है। शायद इसीलिए ममता ने हिंदुओं को रिझाने के लिए चंडी का पाठ किया तो मुसलमानों को संदेश देने के लिए मस्जिद भी गईं।
अपने देश की यह विडंबना यह है कि औसत मतदाता जात-पांत और मजहब के आधार पर वोट देता है। इसके चलते कई बार सरकार के कामों के बजाय अन्य कारणों के आधार पर मतदान होता है। ममता की मुस्लिम तुष्टीकरण के जवाब में भाजपा हिंदू मतों के ध्रुवीकरण के लिए जय श्री राम नारे का इस्तेमाल कर रही है। इससे दवाब में आईं ममता खुद को हिंदू दिखाने में लगी हुई हैं। अन्य दल और विशेष रूप से कांग्रेस और वाम दल बातें तो सेक्युलरिज्म की कर रहे हैं, लेकिन उन्होंने कट्टरपंथी मौलाना एवं फुरफुरा शरीफ दरगाह के पीरजादा अब्बास सिद्दीकी के इंडियन सेक्युलर फ्रंट से गठबंधन कर रखा है। इसी तरह असम में कांग्रेस ने सांप्रदायिक छवि वाले बदरुद्दीन अजमल से समझौता किया है। सेक्युलरिज्म के नाम इस तरह की राजनीति से आम हिंदू समाज आजिज आ गया है। इसे राजनीतिक दल भी समझ रहे हैं और इसी कारण समय-समय पर वे हिंदू समाज को रिझाने की कोशिश करते रहते हैं। गुजरात और कनार्टक चुनाव के समय राहुल गांधी शिवभक्त बनकर मंदिर-मंदिर जा रहे थे तो अभी हाल में प्रियंका गांधी संगम में डुबकी लगाती दिखीं। मतदाताओं को ऐसे तौर-तरीकों को अहमियत नहीं देनी चाहिए। उसकी कसौटी तो यही होनी चाहिए कि प्रदेश और देश के विकास के लिए कौन दल सही काम कर रहा है?
बंगाल, असम, केरल आदि राज्यों के मतदाता चाहे जिस दल को प्राथमिकता दें, वे इसकी अनदेखी नहीं कर सकते कि मोदी सरकार ने विकास के मोर्चे पर बहुत कुछ कर दिखाया है। विकास के साथ जन कल्याण की मोदी सरकार की तमाम योजनाएं असरकारी भी दिखती हैं। कोविड महामारी के दौरान जब दुनिया की अर्थव्यसव्था पटरी से उतर गई थी, तब भारतीय अर्थव्यवस्था को भी खासा नुकसान पहुंचा। देश की अर्थव्यवस्था संभालने के लिए मोदी सरकार की ओर से जो कदम उठाए गए हैं, उनके चमत्कारिक असर भले न दिखें हों, लेकिन वह पटरी पर तो आ ही रही है। भारत ने कोरोना से निपटने के साथ जिस तरह तमाम देशों को वैक्सीन उपलब्ध कराई, उसकी सराहना पूरी दुनिया में हो रही है। भाजपा इसे विधानसभा चुनावों में भुनाने की कोशिश करेगी। इसमें कोई हर्ज भी नहीं।
लगातार कमजोर होती कांग्रेस भाजपा के लिए भले ही लाभकारी हो, लेकिन देश की राजनीति के लिए यह ठीक नहीं। एक समय जो कांग्रेस अपने दम पर विधानसभा चुनाव लड़ती थी, वह अब सहयोगियों पर निर्भर रहने लगी है। उसकी यह निर्भरता लगातार बढ़ती जा रही है। तमिलनाडु में द्रमुक ने कांग्रेस को महज 25 सीटें दी हैं तो बंगाल में वाम दलों ने 92। असम,केरल और पुडुचेरी में कांग्रेस अवश्य गठबंधन का नेतृत्व कर रही है, लेकिन वह पहले जैसी सक्षम नहीं दिख रही। असम में जो कांग्रेस लंबे समय तक सत्ता में रही, वहां उसे पांच दलों से समझौता करना पड़ा है। इनमें सांप्रदायिक छवि वाली अजमल की पार्टी भी है। एक समय कांग्रेस ने इस पार्टी से समझौता करने से इन्कार कर दिया था। हाल में पीसी चाको ने इस्तीफा देकर केरल में भी कांग्रेस को एक बड़ा झटका दे दिया है। चाको ने यह आरोप भी लगाया कि कांग्रेस में लोकतंत्र नहीं बचा है। उन्होंने जिस तरह गांधी परिवार को कठघरे में खड़ा किया, उससे उसकी और फजीहत ही हुई है। इसके पहले जी-23 गुट के नेता भी परोक्ष रूप से गांधी परिवार को कठघरे में खड़ा कर चुके हैं। राष्ट्रीय स्तर पर भाजपा का मुकाबला करने में सक्षम दिखने वाली कांग्रेस अब जिस तरह राज्यों में क्षेत्रीय दलों के लिए अपनी जमीन छोड़ रही है, उससे वह और कमजोर ही हो रही है। कांग्रेस की यह कमजोरी भारतीय लोकतंत्र को भी कमजोर करने का काम करेगी।