डिजिटल डेस्क। हमने स्कूल की किताबों में हमेशा महात्मा गांधी, भगत सिंह, सुभाष चंद्र बोस और जवाहरलाल नेहरू जैसे महान नेताओं के बारे में पढ़ा है। लेकिन भारत की आजादी की जंग केवल इन्हीं नामों तक सीमित नहीं थी। इसके पीछे ऐसे कई वीर, घटनाएं और किस्से छुपे हैं, जिनका जिक्र इतिहास की किताबों में शायद ही कभी किया गया हो।
भारत की आजादी (Independence Day) का संघर्ष लंबा और कठिन था। यह केवल बड़े नेताओं का आंदोलन नहीं था, बल्कि इसमें देश के कोने-कोने से सामान्य लोग, किसान, महिलाएं और बच्चे भी शामिल थे। आजादी के 79 साल पूरे होने के इस खास मौके पर हम आपको बता रहे हैं (Freedom Fighters of India) 10 अनसुनी कहानियां, जो किताबों में कम ही मिलती हैं।
साल 1932 में, महात्मा गांधी और डॉ. भीमराव अंबेडकर के बीच पूना पैक्ट से पहले एक महत्वपूर्ण घटना घटी। ब्रिटिश सरकार ने दलितों के लिए अलग निर्वाचक मंडल की घोषणा की, जिसका गांधीजी ने विरोध किया। उन्होंने यरवदा जेल में इस निर्णय के खिलाफ भूख हड़ताल की। गांधीजी का मानना था कि अलग निर्वाचक मंडल से समाज में विभाजन बढ़ेगा।
डॉ. अंबेडकर दलितों के अधिकारों के लिए लड़ रहे थे और इस निर्णय को दलितों के लिए एक महत्वपूर्ण कदम मानते थे। आखिरकार, दोनों नेताओं के बीच समझौता हुआ, जिसे पूना पैक्ट के नाम से जाना जाता है। इस समझौते के तहत, दलितों के लिए आरक्षित सीटों की व्यवस्था की गई, लेकिन अलग निर्वाचक मंडल की मांग को छोड़ दिया गया।
राम प्रसाद बिस्मिल, अशफाक उल्ला खां और राजेंद्र लाहिड़ी जैसे क्रांतिकारियों के नाम काकोरी ट्रेन डकैती में उनकी भूमिका के लिए प्रसिद्ध हैं, लेकिन इस घटना में शामिल कई अन्य युवा क्रांतिकारियों के नाम इतिहास में उतने प्रसिद्ध नहीं हो पाए।
रामप्रसाद बिस्मिल, अशफाक उल्ला खां और राजेंद्र लाहिड़ी के नाम तो मशहूर हैं, लेकिन काकोरी ट्रेन लूट में भाग लेने वाले कई युवा क्रांतिकारियों के नाम इतिहास में दर्ज नहीं हो सके।
भारत की स्वतंत्रता संग्राम में कई वीरांगनाओं ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। रानी लक्ष्मीबाई के अलावा अवंतीबाई लोधी, झलकारी बाई और ऊदा देवी जैसी वीर नारियों ने भी अंग्रेजों के खिलाफ लड़ाई लड़ी। रानी लक्ष्मीबाई ने झांसी की रक्षा के लिए अंग्रेजों के खिलाफ वीरतापूर्वक लड़ाई लड़ी।
अवंतीबाई लोधी ने रामगढ़ की रानी के रूप में अपनी सेना का नेतृत्व किया और अंग्रेजों का जमकर विरोध किया। झलकारी बाई ने रानी लक्ष्मीबाई के साथ मिलकर दुर्गा दल में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।
ऊदा देवी ने लखनऊ के सिकंदर बाग में अंग्रेजों के खिलाफ लड़ाई में अदम्य साहस दिखाया और एक पेड़ पर छिपकर 32 अंग्रेजों को मार गिराया।
सुभाष चंद्र बोस ने साल 1942 में टोक्यो रेडियो से ‘दिल्ली चलो’ का संदेश दिया था, जिसने भारत के युवाओं में आजादी की लड़ाई के लिए जोश भर दिया था। यह नारा भारतीय राष्ट्रीय सेना (Indian National Army या INA) के लिए एक आह्वान था, जिसका उद्देश्य ब्रिटिश शासन से भारत को मुक्त कराना था।
1940 के दशक में उत्तर-पूर्व भारत में नागा नेताओं ने अंग्रेजों के खिलाफ अपने तरीके से आंदोलन किया, लेकिन यह कहानी मुख्यधारा के इतिहास में कम जानी जाती है। नागा राष्ट्रीय परिषद (NNC) ने 1946 में एक स्वायत्त असम में संवैधानिक रूप से शामिल होने की इच्छा व्यक्त की, जिसमें स्थानीय स्वायत्तता और 'अलग निर्वाचन क्षेत्र' शामिल थे।
साल 1947 में, अंगामी जापू फिजो के नेतृत्व में NNC ने नागालैंड को एक स्वतंत्र राज्य घोषित किया। इसके बाद, नागालैंड में संप्रभु नागालैंड के लिए एक अवैध जनमत संग्रह हुआ, जिसका समर्थन फिजो ने किया था.
वीर सावरकर एक प्रसिद्ध क्रांतिकारी थे, लेकिन उनके साथ कई गुमनाम स्वतंत्रता सेनानी भी थे जिन्होंने अंडमान की सेल्युलर जेल में यातनाएं झेलीं। सावरकर को 1911 में काला पानी की सजा सुनाई गई और उन्हें सेल्युलर जेल भेजा गया, जहां उन्होंने 10 साल से ज्यादा समय बिताया। अंडमान की सेल्युलर जेल, जिसे 'काला पानी' के नाम से भी जाना जाता है।
भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान क्रांतिकारियों के लिए एक भयानक जेल थी। यहां, सावरकर के साथ-साथ कई अन्य स्वतंत्रता सेनानियों को भी कठोर परिस्थितियों में रखा गया था। वीर सावरकर का नाम तो मशहूर है, लेकिन उनके साथ कई गुमनाम क्रांतिकारी भी वर्षों तक यातना झेलते रहे।
चंपारण सत्याग्रह महात्मा गांधी के नेतृत्व में हुआ था, लेकिन इस सत्याग्रह में स्थानीय किसान राजकुमार शुक्ल का बहुत बड़ा योगदान था। उन्होंने ही गांधीजी को बिहार आने के लिए प्रेरित किया था। चंपारण सत्याग्रह, जो साल 1917 में हुआ था, भारत के स्वतंत्रता संग्राम के इतिहास में एक महत्वपूर्ण घटना थी।
यह आंदोलन नील की खेती करने वाले किसानों के साथ हो रहे अन्याय के खिलाफ था। राजकुमार शुक्ल, जो चंपारण के एक स्थानीय किसान थे। उन्होंने इस अन्याय के खिलाफ आवाज उठाई। उन्होंने गांधीजी को इस समस्या के बारे में बताया और उन्हें चंपारण आने के लिए राजी किया।
'इंकलाब जिंदाबाद' का नारा, जिसे भगत सिंह ने लोकप्रिय बनाया। यह वास्तव में साल 1921 में उर्दू कवि हसरत मोहानी द्वारा दिया गया था। यह नारा, जिसका अर्थ है 'क्रांति अमर रहे', स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान एक शक्तिशाली प्रतीक बन गया। यह नारा न केवल भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन में गूंजा, बल्कि आज भी अन्याय के खिलाफ संघर्ष में प्रेरणा का स्रोत है।
1942 के भारत छोड़ो आंदोलन में बच्चों ने भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। कई जगहों पर 12-14 साल के बच्चों ने अंग्रेजों के खिलाफ झंडा फहराया और संदेश पहुंचाने का काम किया। इस आंदोलन में छात्रों ने बढ़ चढ़कर हिस्सा लिया और कई कॉलेज और स्कूल बंद हो गए थे।
आजादी के जश्न की पहली सुबह 15 अगस्त 1947 को दिल्ली में बारिश हुई थी, लेकिन लाल किले पर तिरंगा फहराने के दौरान हजारों लोग भीगते हुए भी डटे रहे।