जशपुरनगर (नईदुनिया न्यूज)। गरीबी,अशिक्षा और बेरोजगारी से जूझ रहे झोरा जाति की समस्या और इन्हें विकास की मुख्यधारा में शामिल करने का मुद्दा राजनीतिक दलों के एजेंडें में अब जगह नहीं बना पाया है। इसी जिले में पहाड़ी कोरवा और बिरहोर जनजाति के विकास के लिए अलग से विकास प्राधिकरण का गठन किया गया है। वहीं उरांव,नगेशिया,रौतिया जैसी जनजातियां अपने संख्या बल पर राजनीतिक दलों को अपनी समस्या और मांगों को मानने पर मजबूर कर देते हैं। लेकिन झोरा जनजाति सदियों से उपेक्षा का दंश झेल रही है। यह जाति जिले के पᆬरसाबहार,तपकरा,कांसाबेल क्षेत्र में पाई जाती है। रियासतकाल में यह जाति अपने वीरता और अदम्य साहस की वजह से राज परिवार के चहेते हुआ करते थे। लेकिन रियासातों के विलीनीकरण के बाद यह जाति गुमनामी के अंधेरे में जीवन व्यतीत कर रही है। ईब नदी के पानी से सोना निकालना इस जाति के लोगों के आजीविका का मुख्य साधन है। इस कारण इन्हें स्वर्णपुत्र भी कहा जाता है। लेकिन इनकी आर्थिक,सामाजिक और राजनीतिक स्थित,इनके इस संज्ञा के ठीक विपरीत है।
जशपुर जिले के साथ पड़ोसी राज्य ओड़ीशा में ईब और महानदी के तटीय क्षेत्रों में नदी के पानी और मिट्टी को छान कर सोना एकत्र करने का काम स्थानीय लोगों द्वारा सदियों से किया जा रहा है। जशपुर जिले के फरसाबहार तहसील के भगोरा, बोखी, मेंडरबहार, कंदईबहार, तुबा, बनगांव, धौरासांड़, हेंटघींचा, खुंटगांव, औरीजोर तथा कांसाबेल तहसील के दोकड़ा, शबदमुंडा, देवरी, गरियादोहर और जोगबहला गांव के ग्रामीण सोना निकालने का काम करते हैं। इन गांवों में ईब नदी के पानी में मिलने वाले स्वर्णकण को निकालने वाले लोगों को झोरा जाति के रूप में जाना जाता है। झोरा जाति के लोग दशको से फरसाबहार और कांसाबेल विकास खण्ड में सोना एकत्र करने का काम करते आ रहे हैं। स्वर्ण एकत्र करने का काम बरसात के दिनों में अधिक होता है। पानी के तेज बहाव के कारण मिट्टी का कटाव होने से नदी के पानी में स्वर्ण कण की मात्रा अधिक होती है,दूसरे मिट्टी के गिली होने की वजह से मेहनत कम लगता है। कई दिनों के कड़ी मशक्कत के बाद एकत्र किए गए सोने के बहुमूल्य कण को स्वर्णपुत्र दलालों के हाथों बेचने के लिए विवश हैं। झारखण्ड,ओड़ीशा और पश्चिम बंगाल के स्वर्ण व्यवसायी के दलाल इन स्वर्णपुत्रों के इर्दगिर्द मंडराते रहते हैं। दिन ब दिन महंगी होती जा रही सोने को दलालों द्वारा आज भी अनाज और वस्त्र के बदले लिया जा रहा है। स्वर्ण मजदूरों के मेहनत की कमाई हड़पने के लिए दलालों द्वारा छोटे पत्थर,बीज जैसे मापक का प्रयोग करते हैं। गरीबी और अशिक्षा से जूझ रहे झोरा जाति के लोगों को आज भी सोने की सही कीमत का अंदाजा नहीं है। इसी की फायदा सोने के काले कारोबार में जुटे दलाल उठाते हैं।
होता है अनोखे औजारों का प्रयोग
नागलोक फरसाबहार में स्वर्ण एकत्र करने के लिए कुछ विशेष औजारों का प्रयोग झोरा जाति द्वारा किया जाता है। ये यंत्र लकड़ी से निर्मित आयाताकार होते हैं। इसका मध्य भाग कटोरेनुमा होता है। लकड़ी के बड़े पात्र को 'दोबयान' कहा जाता है। इसमें मिट्टी को धोया जाता है। जिससे कंकड और रेत के कण पानी से अलग हो जाते हैं। इसके बाद लकड़ी के मध्यम आकार के पात्र फारा में शोधित मिट्टी को पुनः धोया जाता है। इससे मिट्टी से रेत के कण और कंकड मिट्टी से अलग हो जाते हैं। अंत में लकड़ी के सबसे छोटे पात्र निझायर में मिट्टी को धोया जाता है। इस पात्र में विशेष रूप से बने एक गड्ढे में स्वर्णकर्ण फंस कर चमकने लगती है।
ठगी और तस्करी के खेल में पᆬंसे स्वर्णपुत्र
जशपुर जिले के ईब नदी में हीरा और सोना पाये जाने की ख्याती प्रदेश के साथ पड़ोसी राज्य झारखण्ड और ओड़ीशा के साथ अन्य राज्यों में भी फैल चुकी है। इन बहुमूल्य खनिजों की चमक से लोग इस क्षेत्र में खींचे चले आते हैं। यहां कम कीमत में इन्हें बाजार में ऊंची कीमत में बेच कर लाभ कमाने का लालच कई लोगों को यहां लेकर आता है। सोने व हीरे की तस्करी का खेल कई सालों से यहां चल रहा है। इस गोरख धंधे में स्थानीय लोग भी शामिल बताये जाते हैं। आज कल इस क्षेत्र में इन बहुमूल्य खनिजों के नाम पर ठगी का धंधा भी जोरो पर है। नकली सोना और हीरा दिखा कर लालचवश आने वाले बाहरी लोगों से रूपये ऐंठने का काम शातिरों द्वारा किया जा रहा है।
प्रशासन के पास उपलब्ध नहीं है आंकड़ा
जनजातिय बाहुल्य जशपुर जिले में पहाड़ी कोरवा और बिरहोर जनजाति को विशेष संरक्षित जनजाति का दर्जा दिया गया है। इन जातियों के विकास के लिए पहाड़ी कोरवा और बिरहोर विकास प्राधिकरण की स्थापना,अविभाजित मध्यप्रदेश के शासनकाल से कार्यरत है। लेकिन झोरा जाति अब तक ना तो राजनीतिक दलों के प्राथमिकता सूची में अपना स्थान बना सकी है और ना ही प्रशासन,इनकी बदहाली को लेकर गंभीर नजर आ रहा है। नजीजा,इस जाति की संख्या भी शासन-प्रशासन के पास मौजूद नहीं है।
रियासत काल में इनके युद्व कला के कायल थे राजघराने
झोरा जाति के संबंध में जानकारों का मानना है कि इनका संबंध राजपूतों से हुआ करता था। रियासतकाल में इस जाति के पूर्वज,विभिन्न युद्व में राजघराने की ओर से राजपूतों के साथ मिल कर रण क्षेत्र में उतरा करते थे। युद्वकाल में इनकी खासी पूछपरख हुआ करती थी। लेकिन शांति काल में इनके सामने रोजी रोटी की समस्या उत्पन्न हुआ करती थी। इस जाति के समक्ष रियासतों के पतन और ब्रिटिश शासन के उदय के साथ गहराती चली गई। लेकिन रियासतों के अस्तित्व में रहने के दौरान इनकी पूछपरख होती रही। अपनी बेरोजगारी का समाधान इस जाति के लोगों ने जिले में प्रवाहित होने वाली ईब नदी के पानी से सोना निकालने का काम करने लगी। इस नदी के पानी से स्वर्ण कर्ण की खोज करने का श्रेय भी इसी झोरा जाति को दिया जाता है। हाथों में हथियार पकड़ कर रणक्षेत्र में अपने साहस से दुश्मनों के छक्के छुड़ाने के दौरान और इसके बाद पानी की उपᆬनती हुई धार से स्वर्णकर्ण निकालने के बाद भी झोरा जाति को समस्याओं से मुक्ति नहीं मिल पाई है।
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