Acharya Vidyasagar : अनूपपुर, गणेश प्रसाद रजक ( नईदुनिया )। भारत के मध्य में सतपुड़ा और विंध्याचल के संधि पर स्थित मैकल पर्वत श्रेणी से 60 मीटर नीचे घाटी पर बसी पवित्र नगरी अमरकंटक में नर्मदा, सोन,जोहिला नदी का उद्गम स्थान है इसे तपोभूमि की संज्ञा भी दी गई है। श्री 1008 मज्जिनेंद्र पंचकल्याणक प्रतिष्ठा एवं गजरथ महामहोत्सव का पवित्र आयोजन सर्वोदय तीर्थ क्षेत्र अमरकंटक में हो रहा है।आयोजन आचार्य विद्यासागर के सानिध्य में होगा इसकी तैयारियां हो रही हैं। आचार्य विद्यासागर जी का नाता अमरकंटक से 1994 से जुड़ गया था जब उनके पावन चरण 15 जनवरी को अमरकंटक में स्पर्श हुए थे।
सन 1982 में जब गुरुदेव सम्मेद शिखर जी गमन कर रहे थे तब गुरुदेव को अमरकंटक के भौगोलिक प्राकृतिक एवं ऐतिहासिक सुषमा की जानकारी देकर इस पवित्र स्थान पर अहिंसा पथ पर गमन करने वाले तपस्वियों ,भ्रमणों को उपयुक्त साधन का प्रबंध करने के लिए समाज के लोगों ने प्रस्ताव रखा था तब आचार्य श्री को यह स्थान भ्रमणों ,तपस्वियों के विहार एवं साधना के लिए उपयुक्त प्रतीत हुआ था तत्पश्चात गुरुदेव ने जैन मंदिर एवं धर्मशाला निर्माण का मंगल आशीर्वाद दिया था।
आशीर्वाद प्राप्त होने के पश्चात अमरकंटक कार्यकारिणी के सदस्यों का गठन किया गया एवं जिसमें अनेक श्रावक श्रद्धालुओं ने मंदिर निर्माण का संकल्प लिया इस प्रकार अमरकंटक में सर्वोदय तीर्थ क्षेत्र निर्माण का मार्ग सतत हुआ।
अमरकंटक के सौभाग्य से वह दिन भी आया जब परम पूज्य गुरुवर 15 मुनियों के संघ के साथ 15 जनवरी 1994 को नगर आगमन किए।
घने पेड़ों से आच्छादित शून्य तापमान बादलों का समूह मानों संपूर्ण पर्वत को आगोश में समेटे हुए था ।अमरकंटक में निवासरत साधु, पुजारी गण एवं ग्रामीण पूज्य गुरुदेव के दिगंबर शरीर और यहां के वातावरण में इस प्रकार उनका रहना, आचार्य चर्या एवं किसी भी तरह के वस्त्र एवं साधनों का उपयोग न करने की दशा को देखकर आश्चर्यचकित और अचंभित रहते थे।
आचार्य की तपस्या 15 जून 1994 तक संपन्न हुई, आचार्य श्री ने इस पवित्र स्थल को सर्वोदय तीर्थ का नाम दिया एवं इसी स्थल पर सर्वोदय शतक की रचना की इसमें उन्होंने अमरकंटक का वर्णन इस प्रकार से किया है ।
वन की गर्मी तो मिटे, मन की भी मिट जाए ।
तीर्थ जहां पर अभय सुख ,अमिट अमिट बन जाए।
समय का पहिया आगे बढ़ा और भूमि आवंटित कराई गई जिसमें एक भव्य जिनालय एवं धर्मशाला की स्थापना का कार्य होना था।आचार्य के सानिध्य में कल्पना तीत मूर्ति को प्लास्टर आफ पेरिस से मूर्तिरुप प्रदान किया गया।
दुर्ग वाले बाबू लाल जी जैन के अनुरोध पर आचार्य श्री का आशीर्वाद प्राप्त हुआ और मूर्ति ढलाई के कार्य का संकल्प लेकर बाबूलाल जी ने तैयारियां शुरू कीं। तत्पश्चात अष्टधातु की मूर्ति ढलाई कराने का कार्य शुरू हुआ। 2 मई 1994 को यह कार्य प्रारंभ हुआ इस अवसर पर कई महिलाओं एवं श्रावकों ने अपने स्वर्ण आभूषण, पीतल चांदी एवं जो भी उनसे बन सका सब उसी मूर्ति ढलाई में न्योछावर कर दिया।
5 जून 1995 में मूर्ति ढलाई कार्य पूर्ण हुआ।
मूर्ति की ढलाई के बाद आवश्यकता की श्री जी की प्रतिमा ऐसे स्थान पर विराजमान की जाए जहां प्रतिमा जी का परिमार्जन छिलाई व सफाई का कार्य पूर्ण हो इस हेतु सर्व सम्मति से कुंडलपुर परिमार्जन का कार्य होने का सुनिश्चित हुआ।
22 चक्के की ट्राला द्वारा प्रतिमा को जुलाई 1995 को कुंडलपुर पहुंचाया गया। विश्व की सबसे वजनी अष्टधातु की मूर्ति का वजन 17 टन व कमल 24 टन कुल 41 टन का है जिसका नाम गिनीज बुक आफ वर्ल्ड रिकॉर्ड में दर्ज किया गया है।
कुंडलपुर में परिमार्जन का कार्य संपन्न होने के पश्चात भगवान आदिनाथ की अष्टधातु की प्रतिमा का आगमन 21 मार्च 1999 को अमरकंटक की पावन भूमि पर
हुआ।
इसी दौरान ने जिनालय की निर्माण की रूपरेखा की तैयारी 22 जून को मंदिर का शिलान्यास का पावन कार्य विधि विधान पूर्वक संपन्न हुआ।
इंदौर से विहार कर आचार्य श्री का 41 पिछियों के संघ के साथ 31 मार्च 2000 को अमरकंटक आगमन हुआ। 15 जुलाई को आचार्य श्री का अमरकंटक पुनः आगमन हुआ एवं 20 जुलाई को पवन वर्षायोग की स्थापना हुई।
इसी दौरान मंदिर की नींव खुदाई, भराई का कार्य तेज गति से होने लगा। दीपावली महोत्सव के पश्चात पिछी परिवर्तन कर महाराज जी का गमन अमरकंटक से नवंबर माह में हुआ। इस दौरान मंदिर के निर्माण में लगाने वाले गुलाबी पत्थर राजस्थान के धौलपुर बंसी पहाड़ से ट्रकों में भरकर अमरकंटक आने लगे एवं कारीगरों द्वारा उस पत्थर पर कढ़ाई कारबिन का कार्य होने।
जब आचार्य श्री का आगमन 30 जुलाई 2003 को हुआ एवं उनके सानिध्य में 12 जुलाई को चातुर्मास कलश की स्थापना हुई तब यह निर्णय लिया गया कि जब प्रतिमा इतनी बड़ी व विशाल है तो जिनालय भी उतना ही भव्य विशाल होना चाहिए इसके मुख्य शिखर की ऊंचाई 151 फीट के बनाने का सर्वसम्मति से निर्णय हुआ।
इस समय यह भी निर्णय लिया गया कि मंदिर निर्माण में सीमेंट व लोहे का उपयोग नहीं किया जाएगा।
समय अनुसार निर्माणाधीन वेदी पर मुलनायक 1008 श्री आदिनाथ भगवान की प्रतिमा 6 जुलाई 2003 गुरुवार को परम पूज्य गुरुदेव विद्यासागर महाराज के सानिध्य में एवं मुख्य अतिथि भैरों सिंह शेखावत उपराष्ट्रपति की अध्यक्षता दिग्विजय सिंह मुख्यमंत्री एवं अजीत जोगी मुख्यमंत्री छत्तीसगढ़ शासन की उपस्थिति में संपन्न हुआ मंदिर का निर्माण कार्य गति से निरंतर चलता रहा। गुरुदेव का पावन वर्षा योग 11 जुलाई 2006 में पुनः अमरकंटक में हुआ। इसी समय मंदिर के सम्मुख मान स्तंभ निर्माण की रूपरेखा तैयार की गई। 2006 चातुर्मास की अवधि में गर्भ गृह का व गुण मंडप का लगभग 20 फीट तक का फिटिंग कारबिन कार्य हो चुका था।
23 अप्रैल 2007 को मान स्तंभ का शिलान्यास हुआ। इस कार्यक्रम में पुनः मुख्य अतिथि भैरों सिंह शेखावत उपराष्ट्रपति इसका पूरा मुख्य अतिथि भैरों सिंह शेखावत उपराष्ट्रपति, उप राज्यपाल बलराम जाखड़ एवं मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान तथा मंदिर निर्माण समिति के कार्यकारिणी सदस्यों एवं श्रावकों के सानिध्य में संपन्न हुआ।
वर्ष 2009 में आचार्य श्री का पुनः आगमन कुंडलपुर से 18 जून को अमरकंटक में हुआ। इस वक्त तक मंदिर का आधा कार्य संपन्न हो चुका था। आचार्य के अमरकंटक प्रवेश करते ही सर्वप्रथम मंदिर निर्माण कार्य देखने पहुंचे और कार्य की गति देखकर अत्यंत प्रसन्न हुए और कार्यकारिणी सभी सदस्यों को शुभ आशीर्वाद प्रदान किया गया।
वर्ष 2013 तक आचार्य श्री के ग्रीष्मकालीन प्रवास से पूर्व मुख्य शिखर का निर्माण कार्य लगभग पूर्ण हो चुका था।
अमरकंटक की भूमि का पुनः भाग्योदय हुआ और आचार्य श्री 14 मार्च 2013 में अमरकंटक आए, इसी दौरान उनके सानिध्य में 12 से 16 मई तक शहडोल, बुढार,ब्यौहारी से चतुर्थ कालीन प्रतिमाएं जो भूगर्भ से खोदाई के दरमियान मिली थी। इन प्रतिमाओं का लघु पंचकल्याणक का कार्यक्रम भव्य रुप से संपन्न हुआ। लघु पंचकल्याणक कार्यक्रम के दौरान गुरुदेव ने क्षेत्र पर प्रतिदिन शांति विधान करने का सभी कार्यकारिणी सदस्यों को मंगल आशीर्वाद प्रदान किया। उसी दिवस से यह कार्यक्रम शांति विधान एवं अखंड ज्योत का सुचारू रूप से संचालित हो रहा है।
अमरकंटक से 40 किलोमीटर दूर स्थित राजेंद्र ग्राम में भी भव्य जिनालय बनकर तैयार है एवं 80 किलोमीटर दूर स्थित बुढ़ार में भी जयपुरी नक्काशी वाला जिनालय बनकर तैयार है।
जून 2013 में गुरुवर ने कार्यकारिणी सदस्यों को आशीर्वाद प्रदान कर रामटेक की ओर ससंघ विहार किया। इस दौरान दो जुलाई को आचार्य ने मोहिनी पटपर नामक स्थान पर नई परिकल्पना सहस्त्र कुट जिनालय अर्थात 143 फीट ऊंचे मान स्तंभ जिसके अंदर बीचो-बीच नीचे से ऊपर तक 1008 जिनबिम्ब की स्थापना हो जिसे श्रावक सीढ़ियों के माध्यम से नीचे से ऊपर तक जाकर दर्शन वंदना एवं पूजन कर सके।गुरुदेव का भाव था, कि आसपास के स्थानीय लोगों को जिनबिम्ब स्थापित करने का अवसर मिले।
वर्ष 2018 में सन्मति विहार बिलासपुर का पंचकल्याणक पूर्ण करने के पश्चात दो मार्च को होली के अवसर पर आचार्य श्री का अल्प प्रवास अमरकंटक में आठ मार्च तक रहा।
इस तरह गुरुदेव आचार्य विद्यासागर अमरकंटक को चार चतुर्मास व दो ग्रीष्मकालीन वाचना का सौभाग्य प्रदान कर इस पावन भूमि को धन्य एवं कृतार्थ किया है।