वैभव श्रीधर, भोपाल। हर अधिकारी की कार्यप्रणाली अलग होती है। कुछ अधिकारी स्वभाव से मिलनसार होते हैं और मेल-जोल भी खूब रखते हैं, पर कुछ इसके ठीक विपरीत आमजन तो क्या, मातहतों से भी मिलने में परहेज करते हैं। ऐसे ही अपर मुख्य सचिव स्तर के एक अधिकारी का जब भोपाल में ही दूसरे संस्थान में स्थानांतरण हुआ तो कर्मचारियों ने प्रसन्नता जताई। उनके जाते ही जिस सरकारी लिफ्ट को वे निजी संपत्ति मानकर किसी और को उपयोग नहीं करते देते थे, सबके लिए खोल दी गई। दरवाजे पर लगे ताले को भी तुरंत हटा दिया गया। ऐसे ही प्रमुख सचिव स्तर के एक अधिकारी मंत्रालय में भी हैं। ये पदस्थ तो जनता से सीधे जुड़े विभाग में हैं और दरवाजा भी खुला रखते हैं पर सामान्यत: मुलाकात नहीं करते हैं। विभागीय मंत्री भी इनसे परेशान ही रहते हैं और मुख्यमंत्री के प्रमुख सचिव मनीष रस्तोगी को फोन करना ज्यादा बेहतर समझते हैं।
हमें क्या, जवाब तो नेता देंगे
मध्य प्रदेश में पहली बार ऐसी स्थिति बनी है, जब पंचायत चुनाव इतने विवादों में घिरे हैं। पहले तो चुनाव कराने में दो साल का विलंब हुआ। जैसे-तैसे इसकी प्रक्रिया प्रारंभ हुई तो वो अध्यादेश विवाद में पड़ गया, जिसके आधार पर चुनाव कराए जा रहे थे। यह सुलझ पाता, इसके पहले ही पिछड़ा वर्ग के आरक्षण का झमेला खड़ा हो गया। बड़े वर्ग से जुड़ा मामला होने की वजह से सरकार ने अध्यादेश को वापस ले लिया और चुनाव निरस्त हो गए। आदर्श आचार संहिता का प्रभाव समाप्त हो गया तो पंचायतों में पुरानी व्यवस्था बहाल करके पूर्व सरपंचों को वित्तीय अधिकार दे दिए। यह व्यवस्था भी मात्र दो दिन ही चल पाई और आनन-फानन आदेश स्थगित करना पड़ा। हालांकि, इसको लेकर पंचायत एवं ग्रामीण विकास विभाग के अधिकारी बिल्कुल भी परेशान नहीं हैं, क्योंकि जवाब उन्हें नहीं, बल्कि सत्तारूढ़ दल के नेताओं को देने पड़ रहे हैं।
पुनर्वास की दौड़ में सब शामिल
प्रत्येक अधिकारी यही चाहता है कि सेवाकाल में ही उसके पुनर्वास का इंतजाम हो जाए। इसमें कोई गलत बात भी नहीं है, क्योंकि अपने भविष्य के बारे में सोचने का अधिकार सभी को है। यही वजह है कि कुछ अधिकारियों ने राज्य सूचना आयुक्त के पद पर नियुक्ति का विज्ञापन निकलने के साथ आवेदन कर दिया। इसमें सहकारिता आयुक्त नरेश कुमार पाल भी शामिल हैं, जो अगले माह सेवानिवृत्त हो जाएंगे। उन्हें उम्मीद भी है कि उनकी सेवाओं को देखते हुए चयन समिति मौका दे सकती है। हालांकि, सूचना आयुक्त बनने की दौड़ में सेवानिवृत्त अपर मुख्य सचिव से लेकर लेकर सचिव स्तर के कई अधिकारी शामिल हैं। सेवानिवृत्त आइपीएस और आइएफएस अधिकारियों ने भी आवेदन किए हैं। जाहिर है कि पांच साल के लिए इस सम्मानजनक पद को पाने की हसरत सभी की है, इसलिए प्रयास भी कर रहे हैं पर दांव किसका लगता है, यह देखना दिलचस्प होगा।
कर्मचारी दुखी, अधिकारी प्रसन्न
प्रदेश में मंत्रालय कर्मचारी संघ ही ऐसा था, जिसको लेकर अभी तक कोई विवाद नहीं था, पर कर्मचारी नेताओं की आपसी जिद की वजह से यह भी विवादित हो गया। संघ के चुनाव दो बार हो गए और दो अध्यक्ष भी हो गए। कौन सही है और गलत, इसका फैसला तो अदालत से होगा, पर वे अधिकारी खुश हैं, जो चाहते थे कि संघ कमजोर पड़ जाए। दरअसल, प्रदेश में जब भी बड़े कर्मचारी आंदोलन हुए हैं तो उसमें मंत्रालय कर्मचारी अधिकारी संघ की बड़ी भूमिका रही है। अधिकारी भी दबाव में तभी आते थे, जब मंत्रालय में विरोध-प्रदर्शन प्रारंभ हो जाता था। यही वजह है कि इस बार कुछ अधिकारियों ने परदे के पीछे से चुनाव को विवादित बनाने में बड़ी भूमिका निभाई। जबकि, अधिकतर कर्मचारी चाहते थे कि दोनों पक्षों में सहमति बन जाए। इसके लिए पहल भी हुई, पर बेनतीजा रही। इससे कर्मचारी दुखी और अधिकारी प्रसन्न् हैं।