स्मरण दिवस आज
भोपाल(नवदुनिया रिपोर्टर)। 'पूस की भोर थी। खलिहान में धान के बोझों का अंबार लगा हुआ था। रखवाली के लिए बनी कुटिया के आगे धूनी जल रही थी। खेत में, खलिहान पर, चारों ओर हल्का कुहासा छाया हुआ था, जिसे छेदकर आने में सूरज की बाल किरणों को कष्ट हो रहा था। काफी जाड़ा था। धीरे-धीरे बहती ठंडी हवा सनककर कलेजे को हिला जाती'।
ये पंक्तियां रामवृक्ष बेनीपुरी जी की एक कहानी की शुरुआत है। ये उनकी भाषा की सहजता, सुंदरता और जीवंतता को बताती हैं। यह भाषा तब की है, जब छायावादी लेखक गोलमोल रचनाओं को उधातम साहित्य की श्रेणी में गिनते थे। गद्य की भाषा के रूप में जयशंकर प्रसाद और भारतेंदु हरिश्चंद्र की भाषा जटिल और संस्कृतनिष्ठ थी। उस काल में बेनीपुरी की भाषा सहज, सधी और बेहद छोटे-छोटे वाक्यों से बनी सजीली भाषा थी और इसीलिए लोग उन्हें कलम का जादूगर कहते थे। बेनीपुरी की रचनाओं में छोटे वाक्य, दृश्य को नजरों के आगे जीवंत करने की क्षमता तो प्रेमचंद जैसी ही है, वहीं सरसता और सहजता उनसे ज्यादा दिखती है। रामवृक्ष बेनीपुरी का जन्म 1902 में मुजफ्फरपुर जिले के बेनीपुर ग्राम के कृषक परिवार में हुआ था। उन्होंने कहानी,नाटक, उपन्यास कार ,रेखाचित्र ,यात्रा विवरण में विपुल साहित्य रचा। उनका प्रमुख उपन्यास है 'पतियों के देश में' और कहानी संग्रह 'चिता के फूल'। उनका निधन 7 सितंबर 1968 में हुआ।
लालित्य ज्यादा और वैचारिकता कम थी
लेखक और समालोचक विजयबहादुर सिंह ने बताया कि वे समय के विशिष्ट लेखक थे। तत्कालीन आंदोलन और वातावरण के अनुसार उनका लेखन सामाजिक था। भाषा के तत्व और भावनात्मक जुड़ाव को मिलाकर लिखते थे। बेनीपुरी के लेखन में लालित्य ज्यादा और वैचारिकता कम थी। उन्होंने अपने अंचल वैशाली और बिहार पर बहुत ही अच्छा लिखा है। प्रगतिशील लेखक संघ के महासचिव मध्य प्रदेश शैलेंद्र शैली ने बताया कि बेनीपुरीजी ने जनजीवन से जुड़कर जनता की भाषा में रचना कर्म किया। माइथोलॉजी को आम जनता के जनजीवन से जोड़कर प्रस्तुत किया। जनपक्षधरता इनके साहित्य की मूल भावना थी। रामवृक्ष के पास आंचलिकता के साथ विश्व दृष्टि थी।