
नईदुनिया प्रतिनिधि, भोपाल। ''परोपकाराय पुण्याय'' अर्थात दूसरों का उपकार करना ही सबसे बड़ा पुण्य है। इस आदर्श वाक्य को अपने जीवन का मंत्र बनाने वाले भोपाल निवासी 71 वर्षीय सुरेश चन्द्र मिश्र की कहानी भी कुछ ऐसी है। यह उस शिक्षक की नियति है जिसने समाज को अपना सर्वस्व अर्पित कर दिया, लेकिन आज जब उसे मदद की सबसे अधिक आवश्यकता है, तो सिस्टम ने अपनी आंखें फेर ली हैं।
मूल रूप से मऊगंज (एमपी) के ग्राम गौरी निवासी सुरेश चन्द्र मिश्र ने गांव में भविष्य की पौध तैयार करने के लिए अपनी पांच डिसमिल कीमती जमीन दान कर दी थी। इतना ही नहीं, उन्होंने 33 वर्षों तक बच्चों को निशुल्क अंग्रेजी का ज्ञान दिया। लेकिन नियति देखिए, साल 2016 में उन्हें मुंह के कैंसर ने जकड़ लिया। इंदौर में हुए एक बड़े ऑपरेशन में उनका जबड़ा निकालना पड़ा। बाद में कृत्रिम प्लेट भी गाल फाड़कर बाहर आ गई। इस इलाज की भारी कीमत उन्हें अपनी साढ़े चार एकड़ पुश्तैनी खेती गिरवी रखकर चुकानी पड़ी।
सिस्टम की बेरुखी, न पेंशन मिली, न सम्मान निधि एक तरफ कैंसर शरीर को खोखला कर रहा है, तो दूसरी तरफ प्रशासनिक बेरुखी उनके हौसले तोड़ रही है। सुरेश को वृद्धावस्था पेंशन यह कहकर नहीं दी गई कि उनके पिता शिक्षक थे। दो साल बाद उनकी किसान सम्मान निधि भी बंद कर दी गई। उन्होंने भारी मन से बताया कि कुछ माह पहले केंद्रीय कृषि मंत्री ने मदद का भरोसा तो दिलाया, लेकिन सहायता की फाइल आज भी सिस्टम की धूल फांक रही है।
संस्कृत में एम.ए. और एल.एल.बी. जैसी उच्च शिक्षा प्राप्त सुरेश चाहते तो वकालत या किसी बड़े पद पर रहकर धन अर्जित कर सकते थे, लेकिन उन्होंने समाज सेवा चुनी। आज वह भोपाल के अवधपुरी में एक छोटे से मकान में अपनी अंतिम सांसों से जूझ रहे हैं। विडंबना है कि जिस स्कूल के लिए उन्होंने अपनी जमीन दी थी, वह भी आज जर्जर होकर टूट रहा है।
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कैंसर की असहनीय पीड़ा और तंत्र की बेरुखी के बीच भी सुरेश चन्द्र मिश्र के भीतर का कवि जीवित है। जबड़ा खोने के कारण आवाज भले ही साथ छोड़ गई हो, लेकिन उनके शब्दों की शक्ति कम नहीं हुई है। वह अपनी व्यथा और समाज के प्रति अपने समर्पण को आज भी कविताओं के माध्यम से पन्नों पर उतार रहे हैं।