Navdunia Shashikant Tiwari Column: शशिकांत तिवारी, भोपाल। डॉक्टर साहबान के बारे में तो यही कहा जाता है उन्हें राजनीति करने की फुर्सत नहीं रहती है। ये तो बेचारे के काम के बोझ के मारे होते हैं। लेकिन, इसकी दूसरी तस्वीर भी हाल ही में देखने को मिली। गांधी मेडिकल कॉलेज में चिकित्सा शिक्षक संघ के मंगलवार को हुए चुनाव में उपाध्यक्ष के दो पद के लिए तीसरा उम्मीदवार भी आ गया। किसी को उम्मीद नहीं थी कि इस पद के लिए राजनीति होगी। दरअसल, इसके पीछे कूटनीति और रणनीति ज्यादा थी। तीसरे उम्मीदवार को चुनाव लड़वाने में एक पूर्व डीन की भूमिका सामने आ रही है। उनके कॉलेज के बाकी फैकल्टी मेंबर्स से बहुत अच्छे संबंध नहीं हैं, लिहाजा तीसरे उम्मीदवार को उन्होंने चुनाव मैदान में उतार दिया। उन्हें इस बात की चिंता नहीं थी कि उम्मीदवार मैदान मार पाएगा या नहीं। उनकी रणनीति तो सिर्फ विरोध की थी।
दोहरे मोह में फंस गए साहब
हमीदिया अस्पताल के एक जाने-माने डॉक्टर बड़ा ओहदा पाने के बाद इन दिनों प्रदेश के ही दूसरे बड़े शहर में हैं। बड़े पद के मोह में उन्होंने यह पद संभाल लिया। उन्हें भी लगा था कि खूब नाम होगा, लेकिन जिस संस्थान में वह गए हैं, उसकी हालत ठीक नहीं। स्थिति यह है कि संस्थान की हर कमी का ठीकरा उनके सिर फूट रहा है। लिहाजा यह साहब भोपाल में ही अब ज्यादा समय गुजार रहे हैं। दरअसल, भोपाल में उनका रहने का मोह यह भी है कि पुराने मरीज इधर-उधर हो गए तो रिटायरमेंट के बाद उन्हें कौन पूछेगा। प्रैक्टिस का मोह उन्हें शुरू से खूब रहा है। हो भी क्यों नहीं, अपनी विशेषज्ञता में एक समय उन्हीं का नाम चलता था। वह अपने बेटे का बतौर अच्छा चिकित्सक स्थापित करने में लगे हैं। बताया जा रहा है वह एम्स में निदेशक बनने के लिए भी जोर मार रहे हैं।
इस बार जाने नहीं देंगे मौका
एम्स में आपसी लड़ाइयां तो जगजाहिर हो चुकी हैं। मामले कचहरी तक पहुंच रहे हैं। हर कोई शक्ति प्रदर्शन में लगा है, लेकिन अब यहां के धुरंधर लोग अपनी ताकत सार्थक काम में लगाने में जुटे गए हैं। दरअसल, एम्स में निदेशक के पद पर भर्ती होनी है। संस्थान के ही तीन-चार फैकल्टी एड़ी-चोटी का जोर लगा रहे हैं। इनमें एक तो ऐसे भी हैं जो जुगाड़ लगाने में माहिर माने जाने हैं। पहले भी उन्होंने जोर-आजमाइश की, पर सफलता की सीढ़ी नहीं चढ़ पाए। हालांकि, वह इन दिनों किन्हीं कारणों से परेशान भी चल रहे हैं। कोई संघ वालों की सिफारिश लगाने में लगा है तो कोई प्रदेश के मंत्रियों से ही दिल्ली तक सिफारिश कराने की जुगाड़ में है। हालांकि, उम्मीद यही है कि कोई दिल्ली से ही आकर बैठेगा, लेकिन प्रयास तो करना ही पड़ेगा। कुछ को तो यह भी उम्मीद है कि मौजूदा डायरेक्टर के जाने के बाद उन्हें कुछ दिन के लिए मौका मिल सकता है।
रेमडेसिविर मिल तो गया, पर है कहां
बड़ी-बड़ी चोरियों में पुलिस माल बरामद करती है तो दिखता है कि कहां से बरामद किया, बरामद किए माल का क्या किया। लेकिन भोपाल के हमीदिया अस्पताल में रेमेडेसिविर इंजेक्शन चोरी होने का मामला तो निराला है। अस्पताल के पुराने अधीक्षक हों या नए। पूरे भरोसे के साथ कहते हैं कि इंजेक्शत तो मिल गए हैं, लेकिन यह नहीं बता पा रहे हैं कि मिल गए तो हैं कहां। दरअसल, इंजेक्शन नहीं इसका सिर्फ हिसाब मिला है। इंजेक्शन तो खजाने में आने वाले नहीं हैं। दरअसल, स्टोर से बड़े नेताओं और अफसरों के कहने पर इंजेक्शन बांट दिए गए। इसका हिसाब भी था, लेकिन यह लॉकर में रखे सामान की तरह बेहद गोपनीय था। पुलिस ने प्रकरण दर्ज किया तो इंजेक्शन का हिसाब उजागर हो गया है, लेकिन सही खुलासा तो तब होगा जब पता चलेगा किसके कहने पर किसे, कितने इंजेक्शन, किसने दिए।