शिवराज सिंह चौहान
आकाश में व्याप्त अंधकार का हरण करने केलिए सूर्य और चंद्र अपनी आभा बिखेरते हैं और समाज में व्याप्त कुरीतियों के तमस का अंत करने के लिए संत रविदासजी महाराज जैसे महापुरुषों का अवतरण होता है। अज्ञान के अंधकार को नष्ट करने के लिए और जन-पीड़ा की अमावस्या को तिरोहित करने के लिए ही संवत् 1433 की माघी पूर्णिमा को ज्ञान, तप और वैराग्य की शाश्वत भूमि काशी में संत रविदासजी के रूप में एक महान दैवीय शक्ति ने शरीर धारण किया था, जिन्होंने सद्भाव से रहने, सभी प्रकार के भेद का विनाश करने, सबके भले की शिक्षा देने और सामाजिक समरसता के दिव्य नाद का उद्घोष करने का महान कार्य किया। यद्यपि वे सुसंपन्न् चर्म-शिल्पी परिवार में अवतरित हुए थे, लेकिन महात्मा कबीर की प्रेरणा से स्वामी रामानंदजी महाराज को अपना गुरु बनाकर, उन्होंने दिव्य आध्यात्मिक ज्ञान अर्जित किया।
संत समागम, हरि कथा, तुलसी दुर्लभ दोय के अनुरूप बाल्यकाल से ही संत रविदासजी साधु-संतों की दुर्लभ संगति का अमृत पान करते रहे। संत सेवा के साथ-साथ दीन-दुखियों, गरीबों और असहायों की सेवा में उन्होंने अद्भुत आनंद प्राप्त किया और मधुर व्यवहार तथा समयबद्ध जीवन की अनुशासित प्रवृत्ति के कारण साधु-संतों का आशीर्वाद भी प्राप्त किया। उनका अवतरण ऐसे समय में हुआ था, जब समाज में असमानता की भावना, जाति, पंथ और संप्रदाय की जटिल परिस्थितियां थीं, विधर्मियों के आक्रमण का समय था और भारतीय परंपराओं पर लगातार कुठाराघात किया जा रहा था। ऐसे समय में उन्होंने अपने वचनों से विश्व एकता और समरसता पर विशेष बल दिया। सगुण भक्ति की आराधिका मीराबाई ने भी आपको अपना गुरु स्वीकार किया था। यह भी मान्यता है कि जब मीराबाई के पति की मृत्यु हुई तो संत रविदासजी ने ही मीराबाई को सती होने से रोका था। इससे पता चलता है कि भारत में सती प्रथा बंद करने की परंपरा का प्रारंभ संत रविदास ने ही किया था।
संत रविदास ने अपनी आत्मा की आवाज को कभी भी धन या प्रसिद्धि का दास नहीं बनने दिया। उन्होंने पुरुषार्थ के स्थान पर कभी भी अकर्मण्यता को स्वीकार नहीं किया। मन की पवित्रता उनके लिए मानव जीवन का सच्चा जीवन लक्ष्य थी, इसलिए 'मन चंगा तो कठौती में गंगा' जैसे सुविचार उन्होंने क्रियान्वित करके भी दिखाए। उन्होंने समस्त मानव समाज को मानवता और कर्मत्व की शिक्षा दी। वे चर्म-शिल्पी थे, परन्तु जीवन का मर्म जानते थे और इस मर्म ज्ञान के माध्यम से ही उन्होंने समाज को जागृत करने तथा नई दिशा देने का प्रयास किया।
संत रविदासजी की वाणी सारगर्भित, अनूठी और प्रभावशाली थी। श्री गुरु ग्रंथ साहब में उनकी वाणी विभिन्न् स्थानों पर उल्लेखित है। संत रविदास केशब्द भंडार में पंजाबी, अरबी, फारसी, राजस्थानी, हिन्दी भाषा के साथ-साथ भोजपुरी और ब्रज भाषा केशब्दों का भी दर्शन होता है। उनका चिंतन, इतना निर्भीक था कि उन्होंने पराधीन शासन काल में भी भय रहित होकर, पराधीनता के विरुद्ध आवाज उठायी थी। उन्होंने कहा था कि
'पराधीनता पाप है, जान लेहु रे मीत।
रविदास दास पराधीन सों, कौन करे है प्रीत।'
अर्थात पराधीनता पाप है और गुलाम व्यक्ति से कोई प्रेम नहीं करता। सिंह के समान गर्जना करते हुए उन्होंने स्वराज के महत्व को भी प्रतिपादित किया था और कहा था कि
'रविदास मानुष करि बसन कूं, सु कर है दुई ठांव इक सु है स्वराज महिं दूसर मरघट गांव।'
अर्थात मनुष्य के सुख और शांतिपूर्वक जीने के लिए दो ही स्थान निर्धारित हैं, एक है स्वराज्य और दूसरा है श्मशान। उन्हीं का कथन है कि
'ऐसा चाहूं राज मैं, मिले सबन को अन्न्। छोट-बड़ों सब सम बसे, रविदास रहे प्रसन्न्।'
अर्थात मैं ऐसे शासन की स्थापना चाहता हूं कि जिसमें प्रत्येक मनुष्य को अन्न् उपलब्ध हो और जिसमें अमीर तथा गरीब बिना किसी भेदभाव के समान रूप से रह सकें। ऐसे राज्य की स्थापना ही मुझे खुशी प्रदान कर सकती है। संत रविदासजी शिक्षा दार्शनिक भी थे। उनका शिक्षा का दर्शन बाबा साहब अंबेडकर के दर्शन से मेल खाता है। एक ओर संत रविदासजी ने विद्या के महत्व को स्थापित करते हुए कहा था कि
'सत विद्या को पढ़े, प्राप्त करें सदा ज्ञान। रविदास कहे बिन विद्या, नर को जान अजान।'
वहीं दूसरी ओर, उन्होंने साक्षर और शिक्षित में भी अंतर को रेखांकित किया था। बाबा साहब ने भी साक्षर और शिक्षित में अंतर किया है। संत रविदासजी कहते हैं कि केवल अक्षर ज्ञान प्राप्त करना पर्याप्त नहीं है, अपितु जो मनुष्य सही शिक्षा प्राप्त करने केबाद जन-कल्याण का प्रयत्न करता है, वही वास्तविक ज्ञानी है। संत रविदासजी ने जन्म के आधार पर होने वाले भेद-भावों की घोर उपेक्षा की। मनुष्यों ने जातियों के भीतर अनेक जातियां बना दीं, जिसका कोई ठोस आधार नहीं है। जब तक यह जाति का भेद-भाव रहेगा, तब तक मनुष्य एक दूसरे से नहीं जुड़ पाएंगे। उन्होंने स्पष्ट संदेश दिया कि
'रविदास जन्म कै कारनै, होत न काउ नीच। नर कूं नीच करि डारि है, ओछे करम कौ कीच।'
अर्थात जन्म के आधार पर कोई मनुष्य ऊँचा या नीचा नहीं होता है, अपितु, मनुष्य का व्यवहार ही उसे ऊंचा या नीचा बनाता है। वे औपचारिक शिक्षा से रहित थे लेकिन विद्या, ज्ञान और भक्ति के मामले में वे संत समाज सुमेरू के समान थे। उनका निराकार ब्रह्म घट-घट वासी था। उनके उपदेश सार्वदेशिक, सर्वकालिक और सार्वभौमिक हैं। ऐसे दिव्य महात्मा के श्रीचरणों में कोटिश: नमन।
लेखक मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री हैं।
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Emotional Video- CM Madhya Pradesh
Koo Appप्रभु जी तुम चंदन हम पानी,जाकी अंग-अंग बास समानी प्रभु जी तुम घन बन हम मोरा,जैसे चितवत चंद चकोरा प्रभु जी तुम दीपक हम बाती,जाकी जोति बरै दिन राती प्रभु जी तुम स्वामी हम दासा,ऐसी भक्ति करै रैदासा। संत रविदास जी की जयंती पर उनके चरणों में प्रणाम व सभी को बहुत-बहुत शुभकामनाएं: CM- CM Madhya Pradesh (@CMMadhyaPradesh) 16 Feb 2022
CM Shivraj Singh Chouhan