दतिया से शैलेंद्र बुंदेला। बात करीब 217 साल पुरानी है। ग्वालियर के राजा महादजी सिंधिया के निधन के बाद ग्वालियर की गद्दी दौलतराव सिंधिया ने संभाली और दतिया राज्य पर विपत्ति के बादल मंडराने लगे। दौलतराव ने सरदार सरजाराव घाटगे के उकसावे में आकर महादजी सिंधिया की विधवा पत्नियों (लक्ष्मीबाई, यमुनाबाई और भागीरथी बाई) को प्रताड़ित किया तो वे उसके खिलाफ हो गईं। विधवा रानियों का पक्ष लेने पर महादजी सिंधिया के विश्वस्त सिपहसालार लखुवा दादा को ग्वालियर छोड़ना पड़ा था। वह रानियों के साथ इधर-उधर भटकने के बाद जनवरी 1801 में दतिया पहुंचा।
यहां के राजा शत्रुजीत ने शरणागत के प्रति सहानुभूति दिखाते हुए लखवा दादा और रानियों को शरण देते हुए उन्हें सेंवढ़ा के दुर्ग में भेज दिया था। शत्रुजीत का यह कदम दौलतराव को नागवार गुजरा और उन्होंने सेंवढ़ा पर चढ़ाई के आदेश दे दिए। शत्रुजीत को जब यह खबर मिली वे 29 जनवरी को 3 हजार पैदल, 2 हजार घुड़सवार, 6 तोपें लेकर दतिया से कूच कर सेंवढ़ा में रानियों की रक्षा के लिए पहुंच गए। दूसरी ओर दौलतराव सिंधिया की ओर से अंबाजी इंग्ले 5 हजार सवार और यूरोपियन तरीके से सुसज्जित सेना और हिंदुस्तानी सैनिकों की तीन बिग्रेड लेकर सेंवढ़ा के मोर्चे पर जा पहुंचे।
तीन महीने तक दौलतराव सिंधिया की सेना सेंवढ़ा का घेरा डाले रही पर उसे फतह नहीं कर सकी। तब स्थिति की गंभीरता को समझ फ्रांसीसी सेनापति पैड्रों मई सेंवढ़ा पहुंचा और 3 मई को सेंवढ़ा किले पर धावा बोला। किले के बाहर शत्रुजीत और सिंधिया की सेना के बीच भीषण युद्ध हुआ। इसमें वृद्ध राजा शत्रुजीत और लखवा दादा ने अदम्य पराक्रम व शौर्य का प्रदर्शन किया। युद्ध में सिंधिया की सेना का कैप्टन साइमंस 1500 सैनिकों सहित मारा गया। विजय के उल्लास में राजा शत्रुजीत जब युद्धस्थल से लौट रहे थे उसी समय अंगरक्षकों ने राजा के ऊपर छत्र तान दिया। शत्रु सैनिकों ने छत्र से पहचान कर राजा पर घातक वार किया जिससे राजा शत्रुजीत ने युद्धभूमि में ही प्राण त्याग दिए। राजा शत्रुजीत और दौलतराव सिंधिया के बीच हुए इस युद्ध का वर्णन कवि किशुनेश रचित शत्रुजीत रासो में मिलता है।
उधर, घायल लखवा दादा विधवा रानियों सहित बचकर दतिया की ओर निकल गया। सिंधिया की सेना को भी लौटना पड़ा। अंबाजी इंग्ले ने लखवा दादा और विधवा रानियों के बीच संधि वार्ता की पहल शुरू कर दी पर शत्रुजीत के उत्तराधिकारी राजा पारीछत ने दौलतराव सिंधिया के प्रति अपना कड़ा रुख कायम रखा, लड़ाई होती रही।
अजेय रहा है सेंवढ़ा का कन्हरगढ़ दुर्ग
बताया जाता है कि सन 1018 में चामुंडराय का पीछा करते हुए महमूद गजनवी भी कन्हरगढ़ तक आ पहुंचा था। यहां के रणबांकुरों ने चामुंडराय की रक्षा कर गजनवी की सेना से दो-दो हाथ किए। महमूद गजनवी को विवश होकर लौटना पड़ा था। सिंध नदी के किनारे मिट्टी के टीले पर बना यह दुर्ग बनावट व मजबूती के लिए प्रसिद्ध है। दुर्ग के तीन कोटों की 34 फीट ऊंची प्राचीरें चूने और पत्थर से बनी हैं। चारों ओर खाई है।
दो कृतियों में मिलता है वीरता का विवरण
राजा शत्रुजीत के संबंध में दो कृतियां मिलती हैं। शत्रुजीत रासो नाम से दो अलग अलग कवि किशुनेश व कवि साहिबराय ने शत्रुजीत के शौर्य का वर्णन किया है। इनमें कवि किशुनेश शत्रुजीत के दरबारी थे।