अनूप भार्गवद्य नईदुनिया ग्वालियर: भूली बिसरी यादें तेरी ए भवन अब भी संभाल रखी हैं मैंने, कुछ पुराने दस्तावेज आज भी जाकर रख लिए हैं नए भवन की अलमारी में। मैं जिला सत्र न्यायालय, नहीं भुला पाऊंगा उन किताबों और गवाही के वे पल जिनके कारण कई दुर्दांत अपराधियों को सजा और फांसी तक इसी आंगन से दी। हालांकि हमारी मुलाकातों के वे रस्ते और तंग गलियां आवाज देकर बुला रही हैं कि अब हमें छोड़कर जा रहा है तू, लेकिन मैंने भी उससे कह दिया कि इन तंग गलियों की मिट्टी की खुशबू मुझे हमेशा याद आती रहेगी।
मैंने वो दौर भी देखा है जब ग्वालियर राज्य ने ब्रिटिश भारत की तर्ज पर न्यायालय की स्थापना की थी और दंड लगाने के लिए मजिस्ट्रेट को शक्तियां प्रदान की गई थीं। उस समय सिविल मामलों का निर्णय करने के लिए सिविल न्यायाधीशों की नियुक्ति की गई थी। न्यायिक कार्य, सिविल और आपराधिक दोनों, जिले में तैनात जिला न्यायाधीश के नियंत्रण में थे। यह व्यवस्था भारत के अन्य भागों से अलग थी जो अंग्रेजों के नियंत्रण में थे।
जिला मजिस्ट्रेट जिले में पुलिस का प्रमुख हुआ करता था और आपराधिक मामलों का प्रभारी भी, जबकि जिला न्यायाधीश केवल सिविल मामलों का निपटारा करते थे। 1956 से मेरा ठिकाना जयेन्द्रगंज हो गया। यहां मैं अपने बड़े भाई उच्च न्यायालय के साथ मिलकर जनवरी 1998 तक फैसले सुनाता रहा। मेरा बड़ा भाई उच्च न्यायालय वर्ष 1998 में मुझसे दूर चला गया। तब से मैं जिला एवं सत्र न्यायालय इस इमारत का एकमात्र अधिभोगी बना रहा। अब जब मेरी नई इमारत बन गई तो मुझे जयेन्द्रगंज वाली इमारत से विदाई लेना पड़ रही है। मेरी गाथा यहां वकालात करने वाले भी बता रहे होंगे कि मैंने फैसले सुनाने में कभी संकोच नहीं किया।
दुखियों का एक पत्र आने पर ही सुन ली जाती थी फरियाद
अधिवक्ता संजय द्विवेदी कहते हैं कि बात वर्ष 1985-86 की है। जब जिला सत्र न्यायालय में अगर किसी एक दुखी व्यक्ति का पत्र पहुंच जाता था, तो उस पर तत्काल संज्ञान लेकर न्यायाधीश फैसला सुना देते थे। न केवल फरियादी को बुलाकर उसकी समस्या सुनी जाती थी बल्कि उसको परेशान करने वाले को भी तलब कर लिया जाता था। इतना ही नहीं मेरा जिला सत्र न्यायालय आंतकियों की धमकियों से भी नहीं डरा। जिला सत्र न्यायालय परिसर में आंतकियों के खिलाफ गवाही होनी थी। ऐसे में कोर्ट को उड़ा देने की धमकी आ गई। उस समय सीजेएम रेणु शर्मा ने साहस का परिचय देते हुए पूरे परिसर की जांच कराई, जबकि अधिवक्ता से लेकर अन्य सभी डरे सहमे थे।
12 बजे शुरू होना था शो उससे पहले मिल गया स्टे
अधिवक्ता विनोद भारद्वाज कहते हैं कि मोहन जोशी हाजिर हो फिल्म में अधिवक्ताओं के बारे में गलत बताए जाने को लेकर मेरे द्वारा याचिका लगाई गई। फिल्म का शो दोपहर 12 बजे शुरू होना था, लेकिन उससे पहले ही न्यायालय ने स्टे दे दिया। यह याचिका पत्नी के टोकने पर लगाई। दरअसल पत्नी ने फिल्म देखकर कहा कि क्या वकील ऐसा करते हैं। जिला सत्र न्यायालय में लाल कृष्ण आडवानी भी तारीख पर आते थे, उन्होंने कभी भी तारीख मिस नहीं की। इतना ही नहीं इस जिला सत्र न्यायालय से एक साथ नौ हत्याएं करने वाले अपराधी को फांसी की सजा भी सुनाई गई। मौजूदा जिला न्यायालय भवन का अपना गौरवशाली इतिहास है। इसका निर्माण राज्य द्वारा शैक्षिक संस्थानों की स्थापना के लिए बीसवीं सदी के अंत में किया गया था।
यह भी जानना जरुरी
1936 से पहले ग्वालियर राज्य के अधीन न्यायालय और उच्च न्यायालय एक भवन में महाराज बाड़ा पर थे। इस इमारत का एक हिस्सा ध्वस्त कर दिया गया है और दूसरा हिस्सा जिसमें अदालत चल रही थी, वर्तमान में केंद्रीय पुस्तकालय के रूप में जाना जाता है, इससे पहले इसे इंपीरियल बैंक आफ इंडिया के नाम से जाना जाता था।
राज्य काल में ग्वालियर सरकार ने विधायी और न्यायिक विभाग के लिए पार्टियों के बीच विवाद को तय करने के लिए “दरबार नीति” के रूप में अपनी नीतियों को तैयार किया था। उस उद्देश्य के लिए एजेंसियों को नियुक्त किया गया था जिन्हें अदालत के रूप में जाना जाता था। दीवानी मामलों के लिए दीवानी न्यायालय और फौजदारी मामलों के लिए फौजदारी न्यायालयों की स्थापना की गई।
विधायी एवं न्यायिक विभाग “हुजूर दरबार”, ग्वालियर ने संवत 1989 अर्थात वर्ष 1932 में ग्वालियर दीवानी एवं फौजदारी न्यायालयों का नियमन किया तथा उसके तहत विभिन्न विषयवार न्यायालयों की स्थापना की गई।