नईदुनिया प्रतिनिधि, ग्वालियर। कारगिल विजय दिवस सिर्फ एक तारीख नहीं, बल्कि भारतीय सेना के अदम्य साहस और अटूट संकल्प की मिसाल है। 26 जुलाई 1999 को हमारे जांबाज जवानों ने न सिर्फ पाकिस्तानी घुसपैठियों को खदेड़ा, बल्कि दुनिया को दिखा दिया कि भारत की सरहदें उसके वीरों के हाथ में पूरी तरह सुरक्षित हैं।
ऐसे ही कुछ वीर सैनिक ग्वालियर और चंबल अंचल से भी थे, जिन्होंने न केवल युद्ध के मैदान में दुश्मनों को धूल चटाई, बल्कि आज भी उनकी अगली पीढ़ी देशसेवा के लिए सेना में तैनात है। भूखे पेट तीन-तीन दिन तक पहाड़ियों पर लड़ाई लड़ी, लेकिन एक इंच जमीन नहीं छोड़ी। इन्हीं कहानियों में से एक है सौदान सिंह की, जो थ्री पिंपल पोस्ट पर पाकिस्तान के कब्जे को खत्म करने वाली टुकड़ी का हिस्सा थे।
सौदान सिंह, नारायण विहार कॉलोनी निवासी, कारगिल युद्ध के दौरान लांस नायक के पद पर तैनात थे। वे बताते हैं, 'मेरी पोस्टिंग ग्वालियर में थी। जून 1999 में आदेश मिला कि कश्मीर के लिए रवाना होना है। पहले हमें कुपवाड़ा में रिजर्व पार्टी में रखा गया और फिर वहां से सीधे कारगिल सेक्टर के लिए भेजा गया।'
थ्री पिंपल पोस्ट दुश्मन के कब्जे में थी। सौदान सिंह स्नाइपर थे, यानी रेकी (जासूसी) की ज़िम्मेदारी उन्हीं के कंधों पर थी। बटालियन उनसे लगभग तीन किलोमीटर पीछे चलती थी ताकि अगर कोई खतरा हो, तो बाकी सैनिकों को नुकसान न पहुंचे। 28 जून की रात को जब वो दुश्मन की पोस्ट की ओर बढ़ रहे थे, तभी उन पर ग्रेनेड से हमला हुआ। उनकी आंख और जांघ में गंभीर चोट आई, लेकिन उन्होंने न सिर्फ हिम्मत नहीं हारी, बल्कि घायल अवस्था में भी बटालियन को सही दिशा में आगे बढ़ाया।
कई दिनों तक भूखे रहकर, बिना किसी डर के पहाड़ी पर डटे रहे। आखिरकार, पाकिस्तानी सैनिक पीछे हटने को मजबूर हो गए और भारत ने थ्री पिंपल पोस्ट पर कब्जा कर लिया। सौदान सिंह कहते हैं, 'हमने ठान लिया था, चाहे कुछ भी हो जाए, एक इंच भी जमीन नहीं छोड़ेंगे। और हमने वही किया।'
सौदान सिंह के परिवार में अब दो और लोग भारतीय सेना में सेवाएं दे रहे हैं। वे कहते हैं, “हमारे लिए वर्दी एक परंपरा है, जो पीढ़ियों से चली आ रही है। ये सिर्फ नौकरी नहीं, जीवन का लक्ष्य है।”