
ईश्वर शर्मा, अयोध्या। सदियों से समय की गति को टकटकी लगाए देख रही अयोध्या अब अचानक ठहर-सी गई है। यों सड़कों, घाटों, मंदिरों, मठों में चहल-पहल का अहर्निश आकाश रचा जा रहा है, किंतु अयोध्या के मन में अब विश्रांति का भाव है...। एक शांति, जिसकी प्रतीक्षा में साकेत नगरी की आंखें सदियों से पथराई हुई थीं। अवध अब सरयू की धार की तरह मंथर होती जाती है। रामनगरी की धमनियों, शिराओं में रक्त का उबाल अब सम पर आन चला है।
अयोध्या अब राजनीति, न्यायालय, नारों और तनी हुई मुट्ठियों को बहुत पीछे छोड़ चुकी। अब तो यहां अनुष्ठानों के नव-आख्यान रचे जा रहे हैं। बटुकों के कोकिल कंठ से सरयू की तरह बह रहे सस्वर मंत्रों की अनुगूंज है। संतों के पुण्य का प्रतिफल वायुमंडल में तैर रहा है। गृहस्थों के तप और त्याग से यहां दीप प्रज्वलित हो उठे हैं। मठों-मंदिरों से लेकर घाटों-गलियारों तक में अदृश्य दुंदुभियां बजने लगी हैं।
शंख अपनी मंगल ध्वनि से व्योम को गुंजा रहे हैं। घंटों के पवित्र नाद ने हर विधर्मी शोर को परास्त कर दिया है। अब तो अवध में देवी-देवताओं के आगमन का समय है। पृथ्वी अपनी धुरी पर घूमते हुए भी रह-रहकर ठिठक जाती है और पलट-पलटकर अयोध्या का वैभव देख रही है। दिन में समूचा आकाश और रात्रि में सारा तारामंडल अवध को झगर-मगर सजा रहा है। यह सब देखकर यायावर अश्रुपूरित और भावविह्वल है।
आंसू रोके नहीं रुक रहे। उसकी स्मृति में इतिहास कौंध रहा है। कभी वह आज की अवध के वैभव को देखता है, तो कभी इस वैभव को लाने के लिए अपने रक्त, प्राण, मज्जा और देह की आहुतियां मांग लेने वाले क्रूर समय को। यायावर को याद आता है कि आज सजी-धजी इसी अवध की गलियों में चली थीं गोलियां, बिछे थे कारसेवकों के शव और सरयू के घाट पर डुबो दिए गए थे राम के भक्त। डुबोते समय उनके पांवों में बांध दी गई थीं रेत की बोरियां कि कहीं शव सतह पर आकर क्रूर राजनीति को नग्न न कर दें।
श्रीराम जन्मभूमि के सामने एक ओटले पर अकेले बैठे यायावर का मन उस कालखंड को याद करके खंड-खंड हो रहा है। ...कि तभी आकाश में गड़गड़ाहट सुनाई दी है। वह देखता है कि श्रीराम के अनुष्ठान के लिए विमान चले आ रहे हैं। देवता अपने-अपने रथों, विमानों, वाहनों पर घर्घर नाद के साथ अहर्निश अयोध्या आ रहे हैं। अवध का आकाश अब देवताओं द्वारा की जाने वाली पुष्पवर्षा के लिए सन्नद्ध हो रहा है।
इधर, धरती अपनी कोख में चमक रहे सभी रत्न, स्वर्ण, मणि-माणिकों को उगलकर अयोध्या के चरणों में चढ़ा देना चाहती है। सप्तसागरों ने अपने जल से अयोध्या के चरण पखार दिए हैं। सप्तपुरियां सगी बहनों की तरह अयोध्या के अनुष्ठान का आनंद बढ़ाने चली आई हैं। संसारभर के ताल-तलैया अपने पानी में खिले कमल को रामनगरी को भेंट करने के लिए कतारबद्ध होकर खड़े हैं।
कामधेनु के नेतृत्व में इस सृष्टि की सभी गायें अपने दुग्ध से अवध का अभिषेक करने के लिए दौड़ी चली आ रही हैं। उनकी पदचाप से जो पवित्र धूल उड़ी है, उसने अयोध्या के ललाट पर मलय का लेप कर दिया है। काशी, केदार, महाकाल, ओंकार आदि सब मंदिरों से आए कुमकुम ने अयोध्या के माथे पर मंगल तिलक लगा दिया है। सृष्टि के सभी पंछी, जीव-जंतु आदि प्राणियों की दृष्टि अब अवध की ओर है। सब अपने-अपने अंत:पुरों में धोती-पंछा-शोला पहनकर आसन जमाए बैठ गए हैं।
अधरों पर सबके राम नाम का जाप है, कंठों से सबके रामधुन की सरिता बह रही है। यह सब देख-देखकर अवध भी अश्रुपूरित है। वह कभी भावविह्वल होकर स्वयं को देखती है, तो कभी अपने चरणों में आ चुकी सृष्टि को। कभी वह अपने लाड़ले राम के स्वागत में पुलक से भर जाती है, तो कभी शबरी जैसी प्रतीक्षा में फूल बिछाने लगती है। अयोध्या सदियों बाद अपने पुत्र राम के आगमन पर भावविभोर मां हुई जाती है। उसकी देह में दूध उतर आया है। वह अब कौशल्या हो गई है।
यह सब देखकर यायावर इतना धन्य है कि इसी मंगल क्षण में मनुष्य की देह तजकर अनंत अयोध्या की रज में विलीन हो जाना चाहता है।... कि अब इस इंसानी देह में जीना व्यर्थ है। अब सारा अर्थ अयोध्या हो जाने में है, अवध की धूल में मिल जाने में है, सरयू का सत्व हो जाने में है। उसके मन में अब यही चौपाई गूंज रही है... तौ मैं बिनय करउं कर जोरी। छूटउ बेगि देह यह मोरी।