Taste Of Indore: इंदौर, नईदुनिया प्रतिनिधि। किसी भी शैक्षणिक संस्थान के भूतपूर्व विद्यार्थियों के मिलन समारोह में संस्थान, शिक्षकों और दोस्तों की बातें होना तो सामान्य है लेकिन यदि इनकी बातों में विशेष कचौरी का जिक्र हो तो समझ जाएं कि बात बद्रीभैया (बम की कचौरी) की हो रही है। 1962 से अपने विशेष स्वाद से लोगों के दिलों पर राज करने वाली यह कचौरी आज भी सिगड़ी पर बनती है और इसे बनाने वाले कारीगर बाहर के नहीं बल्कि परिवार के सदस्य ही हैं। आज का उत्कृष्ट बाल विनय मंदिर, श्री गोविंदराम सेकसरिया प्रौद्योगिकी व विज्ञान संस्थान, सेंट रेफियल्स, श्री गुजराती समाज विद्यालय की पत्रिकाओं में भी कहीं न कहीं इस कचौरी का जिक्र आ ही जाता है। मूंग दाल की यह कचौरी कई दशकों से इंदौरियों के दिलों पर राज कर रही है।
60 के दशक में बद्रीलाल शर्मा पत्नी भंवरीबाई के साथ राजस्थान के कोलर गांव से इंदौर आकर बसे। खाने के शौकीन इस शहर में उन्हें आय का भी यही तरीका नजर आया और दोनों ने घर में ही कचौरी बनाना शुरू किया जिसे बद्रीलाल साइकिल से बेचने निकल जाते थे। इन विद्यालयों के अलावा वल्लभ नगर, रेसकोर्स रोड आदि क्षेत्र में जब वे साइकिल से कचौरी बेचते थे तो 'बम' कहकर आवाज लगाते थे। धीरे-धीरे कचौरी की पहचान ही बम कचौरी के नाम से हो गई जो आज तक बनी हुई है।
साइकिल का सफर इतवारिया बाजार में दुकान के रूप में स्थिर हुआ तो इसे एक और पहचान इतवारिया की कचौरी के रूप में मिली। रसोई गैस को घरों में देखने वाली पीढ़ी ने इसे सिगड़ी वाली कचौरी के नाम से संबोधित करना शुरू किया। बाद में एक और दुकान नलिया बाखल में शुरू हुई और इस तरह दाल की कचौरी कई नाम से पहचानी जाने लगी। 10 पैसे में बिकना शुरू हुई कचौरी की कीमत आज 15 रुपये प्रति नग हो गई है।
बद्रीलाल के पुत्र रामेश्वर, अशोक और महेश आज भी सिगड़ी पर बनने वाली कचौरी की परंपरा को निभा रहे हैं। अशोक बताते हैं कि मूंग की दाल को उबालकर उसमें बेसन, मालवी लालमिर्च और घर पर तैयार गरम मसाले मिलाकर सिगड़ी पर ही कचौरी का मसाला तैयार होता है। मूंगफली के तेल में सिगड़ी की मध्यम आंच पर कचौरी तली जाती है। इसमें कोई विशेष मसाला नहीं होता बस इंदौरियों के प्रेम ने इसे खास बना दिया। मुझे याद है नरेंद्र तिवारी, गोपीकृष्ण गुप्ता, मैत्रीय पद्मनाभन 'बड़ी टीचर', रामेश्वर पटेल, अशोक पाटनी, पंकज संघवी, लक्ष्मणसिंह गौड़ यह कचौरी खुद खाते थे और दूसरों को भी यहां लेकर आते थे।